विज्ञान को किस तरह आसान बनाया जाए...किस तरह सिम्लिफाई किया जाए...दरअसल चुनौती यही है...जिससे टीचर्स और कथित विज्ञान पत्रकार समझने की कोशिश नहीं करते...विज्ञान को इतना दुरूह बनाकर रख दिया गया है कि आज उसका परिणाम विज्ञान से भागते विद्यार्थियों के रुप में देखा जा सकता है। जो कि भविष्य के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है। विज्ञान को लोकप्रिय विषय बनाने के लिए जो-जो प्रयास किए जाने चाहिए...वो सरासर नाकाफी हैं।
आज आइंस्टाइन को समझने के लिए हमें वैज्ञानिक दृष्टि जरुर चाहिए लेकिन सभी आइंस्टाइन बन जाएं ये जरुरी नहीं है। थ्योरि ऑफ रिलेटिविटि को इस अंदाज में फिर से समझाने की जरुरत है जिसे पानवाले से लेकर प्रोफेसर तक सरलता से समझ ले।
विज्ञान को समझने के लिए किसी वैज्ञानिक की जरुरत नहीं है बल्कि वैज्ञानिक सोच की जरुरत होती है। इसके लिए सबसे सटीक उदाहरण ‘थ्रीइडियट’ फिल्म मेंसहस्त्रबुद्दे का पैनहै। दरअसल फिल्म में उस स्पेशल बॉल पॉइंट को रुस और अमेरिका में चले अंतरिक्ष शीत युद्द में अमेरिका द्वारा लाखों डॉलर खर्च करके बनाए गए उस पैन की कहानी को बड़े ही रोचक ढंग से पेश किया गया। वैसे फिल्म में फिल्मकार उस कहानी का कुछ संदर्भ डाल देता तो शायद विज्ञान का वो पहलु और भी रोचक बनकर उभर आता...खैर जिस पैन को ईजाद करने में अमेरिका ने लाखों डॉलर खर्च कर डाले...हालांकि उस पैन की खाशियत भी थी...वो जीरो जिग्री गेविटी पर काम कर सकता था...उपर-नीचेभी लिख सकता था...लेकिन इसके जवाब में रुस ने मात्र एक पेंसिल से वही काम कर दिखाया...जिसे बनाने में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने लाखों डॉलर खर्च कर दिए।एक और उदहारण आप सभी से बाँटना चाहता हूँ जिस नासा का एक साल का चाय पानी का जितना बजट होता है उतने ही पैसे में भारत ने (350 करोड़) एक सफल चंद्रयान भेजकर दुनिया में एक नया इतिहास रच दिया....यानी भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं हैं....बल्कि दूसरी चीजों की कमी है उसे दूर की जानी चाहिए...लेकिन कैसे ? इसे नए तरीके से सोचने की जरुरत है...बेसिक साइंस को जब तक सिम्प्लीफाई नहीं किया जाएगा...तब तक नतीजे अनुकूल आने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए...जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में मीडिया की भूमिका कर्मकांडी ब्राह्मण से ज्यादा नहीं हो सकती।असल में ये भूमिका मुझे इसलिए बांधनी पड़ रही है कि विज्ञान को सरल बनाने के लिए हम सभी को विषय को पहले स्वयं समझना होगा...जिसे शायद हम ठीक से समझना नहीं चाहते...क्योंकि हम खुद को सर्वज्ञ समझने की भूल जो कर बैठते हैं। यही भूल हमारे सभी कामों पर असर डालती...अब जैसे आजकल घनघोर सर्दियों का मौसम है।सभी घरों में हीटर...हीट कन्वेक्टर चल रहे हैं। आखिर ये हीट कन्वेक्टर ऐसा क्या करते हैं कि पूरा कमरा ही गर्म हो जाता है...इसे अगर सरल और रोचक ढंग से कथा में पिरोकर पेश किया जाए तो क्या वो बच्चों के दिमाग में उससे अच्छी तरह प्रवेश नहीं करेगी जिस तरह परंपरागत तरीकों से हम ठूंस देना चाहते हैं।
चंद्रयान की सफलता के बाद भले ही भारत ने विज्ञान के क्षेत्र में अपना रूतबा दिखाया हो, लेकिन एक शोध के मुताबिक देश में हर साल केवल 13 प्रतिशत डिग्रियां विज्ञान विषयों में दी जाती हैं। यह तथ्य छात्रों में विज्ञान के प्रति तेजी से कम होते रूझान की ओर इशारा करता है।
अंतर्राष्टीय स्तर पर जहां विज्ञान की कथाएं बेहद रोचक हैं...क्योंकि वहां विज्ञान जीने का अंदाज है। जहां विज्ञान जीने का अंदाज हो वहां पर बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में आविष्कारक बुद्धि काम करती है। वहां किस तरह जीवन और बेहतर हो सकता है इस पर सोचने का काम किसी खास व्यक्ति की बपौती की तरह नहीं होता। वहां कोई भी कुछ भी कर लेता है। और चीजें सरलता से आगे बढ़ती हैं। हमारे लिए चुनौती जरुर बड़ी है लेकिन हम उसे आसानी से पार कर सकते हैं। बस हमें बदलने होंगे अपने चरित्र और अपनी कहानियां। हमें उनमें देशी अंदाज की सामग्री शामिल करनी होगी। हमें उसमें भारतीय संदर्भ सही अनुपात में डालना होगा।भारतीय विज्ञान कथाएं, वैश्विक घटकों से खुद को कतई अलग न करे लेकिन उसमें सावधानी से स्वयं की पहचान बरकरार रखते हुए आगे बढ़ती रहे। कॉपी करने के चक्कर में खुद से भी जाते हैं और नया आभामंडल विकसित भी नहीं हो पाता है।आइये थोडा मिल बैठ कर सोचते हैं कि हमें विज्ञान की जागरूकता बढ़ाने के लिए इस तरह की कार्यशालाओं की जरुरत क्यों पडी और यही वक्त क्यों आप सबने सुना होगा आवश्यकता आविष्कार की जननी है मानव सभ्यता के इतिहास में इक्सवीं शातब्दी में विज्ञान अपने चरम पर है और भारत भी इसमें पीछे नहीं है तकनीक किसी की बपौती नहीं रही पर भारत का पिछडापन इसमें आड़े आता है चूँकि निरक्षरता का दैत्य अभी भी भारत में जिन्दा है लेकिन तकनीक की भाषा अभी भी अंगरेजी है भारतीय भाषाएँ आगे तो बढ़ रही हैं पर विज्ञान संचार के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है कारन सीधा है हमारे दैनिक जीवन में तकनीक पश्चिम के देशों के मुकाबले अभी हावी नहीं है और दूसरा कारण सवाल न करने की हमारी आदत वाचिक परम्परा से ली गयी है यानि जो बता दिया गया या सुन लिया वो मान लिया समस्या यहीं है | दादा दादी की कहानियों में विज्ञान कथाओं का न होना ये बताता है कि अज्ञानता की कीमत कैसे एक पूरी पीढ़ी को चुकानी पड़ रही है |
कथाओं से हमारा पहला परिचय दादा दादी की कहानियों से होता है जहाँ से कहानियों उसके कथानक से हमारा वास्ता पड़ता है और हमारी रुचियों का निर्माण होता है . ये कमजोर कड़ी अब आप जैसे जागरूक नागरिकों से मज़बूत हो रही है.इसमें एक बड़ी भूमिका होलीवुड की क्षेत्रीय भाषाओं में डब फ़िल्में भी निभा रही हैं स्पाइडरमैन भोजपुरी ,हिन्दी ,तमिल ,तेलगु सब एक साठ बोल रहा है .डिस्कवरी साइंस जैसे चैनल हमारी सोच के आकाश को नयी ऊँचाइयाँ दे रहे हैं .प्रेम कथाओं से आगे फिल्मे ,साहित्य , चैनल सभी आगे बढ़ रहे हैं ,अभिव्यक्ति के नए दरवाजे खुल रहे हैं और इसमें एक विज्ञान संचार भी है .हिस्ट्री चैनल पर स्पलाएस जैसे कर्यकर्म दिन भर हमें बताते है कि चीजें काम कैसे करती हैं और ये तो आप सभी जानते हैं कि बात से बात निकलती है और जब बात निकलती है तो दूर तलक जाती है . जब हम हैं नए तो अंदाज़ क्यों हो पुराना आज की पीढ़ी ज्यादा जागरूक है और उसकी सोच में वैज्ञानिकता भी है .हम उम्मीद कर सकते हैं कि अब भारत में भी बदलाव दिखेगा यूनीकोड फॉण्ट के आ जाने से कंप्यूटर की दुनिया में हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ में काम करना आसान हो गया है .कुछ कहने के लिए किसी का इन्तिज़ार नहीं करना बस इंटरनेट की गोद में बैठ जाना और सारी दुनिया का हाल ले लेना और अपना पता दे देना कितना आसान हो गया है.
क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान कथा लेखन,दो दिवसीय (25-26 दिसम्बर, 2011) कार्यशिविर
विज्ञान प्रसार, नेशनल बुक ट्रस्ट एवं तस्लीम के संयुक्त आयोजन में दिनांक 27/12/11 को दिया गया व्याख्यान