बी बी सी की हिंदी सेवा के बंद होने से ये साफ़ हो गया है कि सरकार समर्थित मीडिया तंत्र चाहे वो बी बी सी की तरह कितना ही स्वतंत्र और स्वायत्त ही क्यों न हो पर मीडिया का इस्तेमाल सिर्फ लोगों को सूचित करने के लिए नहीं किया जा सकता है सरकारें भी हानि लाभ से इसे देखती हैं अगर ऐसा न होता तो बी बी सी की रेडियो हिंदी प्रसारण सेवा को बंद करने का फैसला न किया जाता हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बी बी सी की भारत में लोकप्रियता का आधार भारतीय ग्रामीण वर्ग है जो सूचना विस्फोट के इस युग में आज भी खबरों के लिए रेडियो जैसे यन्त्र पर ही निर्भर है .
यह डिजिटल डिवाइड यह दर्शाता है भारत जैसे लोकतंत्र में सूचनाओं को आम जन तक पहुँचाने की कसौटी को आर्थिक सम्पन्नता से देखा जाता है चूँकि भारत का आम आदमी बड़ा उपभोक्ता नहीं है इसलिए उसकी सूचना जरूरतों को पूरा करने के लिए हम बाध्य नहीं हैं .सारी दुनिया में ग्लोबलाइजेसन के बाद हर जगह बाजार की शक्तियां ज्यादा शक्तिशाली हुई हैं इसका असर मीडिया में भी दिख रहा है एक तरफ गुणवत्ता बनाये रखने और पाठकों /दर्शकों को रोकने के लिए बेहतर से बेहतर प्रतिभा की जरुरत वहीं उन प्रतिभाओं को बेहतर जीवन स्तर देने के लिए ज्यादा धन देने का दबाव खुला बाजार होने के कारण यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा तो फिर हम ही क्यों न करें वाली मनोवृति आज का मीडिया इतनी केंद्रीय भूमिका में किसी भी वक्त में नहीं रहा जहाँ ये लोगों के बीच उसकी बढ़ती पहुँच को दिखाता है वहीं वो सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में भी है .
मीडिया के उपर उठते सवालों के मूल में है उसका चरित्र जो मिशनरी से अब पूर्णता व्यवसयिक हो गया है अब इसके फायदे हैं या नुक्सान यही बहस का मुद्दा है जिस तरह हमारा समाज और उसकी संस्थाएं बदल रही हैं मीडिया भी इनसे अछूता नहीं है अभी पिछले दिनों मीडिया के वेतन लिए आयी मजीठिया आयोग की रिपोर्ट पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर मीडिया को लेकर जितने प्रश्न आज उठाये जा रहे हैं सभी के मूल में धन ही है .यदि पत्रकारों की जीवन शैली बेहतर हुई है और वेतन आकर्षक तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए वेतन अगर आकर्षक चाहिए तो अखबारों को ज्यादा विज्ञापन और चैनलों को टी आर पी की आस होती है और होनी भी चाहिए .विज्ञापन और टी आर पी के लिए एक सामान्य सी व्यवस्था है और इसमें छेड़ छाड नहीं हो सकती क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा भी महतवपूर्ण है पर बगैर लाभ के यह व्यवसाय चल भी नहीं सकता इसलिए लाभ ज्यादा महतवपूर्ण हो गया है और सार्वजनिक हित कहीं पीछे छूटता सा दीखता है .
सवाल कई हैं मीडिया के लिए कौन सा वित्तीय मोडल अपनाया जिससे इस पेशे की शुचिता भी बरक़रार रहे और लाभ की गुंजाईश भी ,पेड न्यूज़ ने भारतीय मीडिया की गरिमा को जहाँ ठेस पहुंचाई है वहीं सिर्फ मुनाफे की आस में इस क्षेत्र में आये लोगों को दो को चार बनाने का आसान रास्ता भी सुझाया है .अगर औडिएंस के नज़रिए से बात की जाय तो कम से कम भारत में औडिएंस सूचना और मनोरंजन के लिए ज्यादा धन नहीं खर्च करना चाहता और अगर करता भी है तो मजबूरी में लेकिन वो गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं चाहता यहाँ वह एकदम आम उपभोक्ता वाला व्यवहार मीडिया से करता है लेकिन जब वही उपभोक्ता एक आम इंसान के नज़रिए से मीडिया को तौलता है तो वह उम्मीद करता है कि मीडिया पेशे की नैतिकता को बनाये रखेगी और व्वसाय गत नज़रिए से उठकर देश और सार्वजनिक हित की कसौटी से अपने कार्यक्रम और संदेशों को परखकर लोगों को पहुंचायेगी ऐसे में वह भूल जाता है कि वैश्वीकरण के इस युग में बाजार से बचना मुश्किल है और बाजार में टिकना है तो मुनाफा कमाना पड़ेगा और वह मुनाफा सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों से ही अर्जित किया जा सकता है
औडिएंस का यह दोहरा रवैया और मीडिया संस्थानों की ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृति मीडिया की साख पर उठते सवालों का कारण है सरकारीकरण से दूरदर्शन और आकाशवाणी का क्या हश्र हुआ यह सभी के सामने है प्रसार भारती बोर्ड बन जाने के बावजूद स्थतियों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है ये एक बानगी भर है कि सरकारी समर्थन के बावजूद हमारा प्रसारण तंत्र वो विश्वसनीयता हासिल नहीं कर पाया जो बी बी सी को हासिल हुई इसके लिए सरकारी दबाव भी जिम्मेदार है लेकिन वहीं जब रेडियो और टेलीविजन को निजी क्षेत्रों के लिए खोला गया तो उल्लेखनीय परिणाम देखने को मिले कार्यकर्मों की गुणवत्ता में सुधार हुआ और वे ज्यादा प्रयोगधर्मी हुए लेकिन समस्या फिर उठ खड़ी हुई कि वे बेडरूम में घुस रहे हैं अश्लीलता फैला रहे हैं अब इसकी मर्यादा कौन तय करेगा समाचार पत्रों को सरकारी हस्तक्षेप से पूर्णता मुक्त रखा गया लेकिन अब वो भी पेड न्यूज़ को लेकर सवालों को घेरे में हैं .
देखा जाए तो अभी तक हम लोग मीडिया के किसी सार्थक रेवन्यू मोडल की तलाश नहीं कर पायें हैं जिसमे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की गुंजाईश न हो और व्यवसायिक रूप से फलने फूलने का रास्ता भी हो .सामुदायिक रेडियो की अवधारणा पूरे मीडिया जगत में लागू नहीं की जा सकती क्योंकि आर्थिक संसाधनों का अभाव विस्तार में एक बड़ी बाधा है और इस तेज बदलती दुनिया के हिसाब से ऐसे प्रयोग उन क्षेत्रों के लिए तो ठीक हैं जहाँ किसी तरह के संचार साधनों का अभाव है या उनकी पहुँच नहीं है पर ऐसे प्रयोग मुख्य धारा की मीडिया का स्थान नहीं ले सकते हैं .सहकारी आंदोलन की तर्ज़ पर मीडिया का इस्तेमाल भारत जैसे बहु भाषीय समाज में सफलता की गारन्टी नहीं हो सकते इसका एक कारण तकनीक का तेजी से बदलना और इसका महंगा होना भी है वेब मीडिया एक उम्मीद की किरण जगाता तो है पर वह भी विज्ञापनों के माया जाल से बच नहीं सका और हमारे देश में अभी इन्टरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या काफी कम है .सिर्फ मीडिया को इन तमाम समस्याओं के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता पाठकों /दर्शकों की मनोवृति भी एक बड़ा कारण है यदि आप मीडिया से अपेक्षा करते हैं तो इस व्यवसाय की समस्याओं और सीमाओ को भी समझें पहल दो तरफ़ा होगी तभी मीडिया की विश्वसनीयता में बढोतरी होगी ,चैनल और अखबार अपनी लक्ष्मण रेखा खुद ब खुद तय कर लेंगे और ऐसा उनहोंने किया भी है .
अमर उजाला के सम्पादकीय पृष्ठ पर १२ फरवरी को प्रकाशित