Tuesday, December 31, 2019

प्लासटिकमय होते समय में

आज कई सालों बाद कबाड़ी की आवाज सुनी तो सोचा क्यों न घर का कुछ कबाड़ निकाल दिया जाए ,कबाड़ तो काफी निकला पर कबाड़ी के लेने लायक कुछ नहीं था सिवाय कुछ किलो अखबारी कागज़ के .कबाड़ में ज्यादातर प्लास्टिक की बोतलें,खराब मोबाईल बैटरी,कबाड़ी तो अखबार लेकर चला गया और मैं प्लास्टिक
की अधिकता वाले  कबाड़ के उस ढेर में बैठा –बैठा सोचने लगा अपने बचपन के दिन और कबाड़ी वालों के साथ अपने अनुभव के बारे में. बात ज्यादा पुरानी नहीं है.नब्बे के दशक तक हमारे घर के कबाड़ में खूब सारे रद्दी कागज़ हुआ करते थे कांच की बोतलें, शीशियाँ और कपडे .कांच की वही बोतलें शीशियाँ बेची जाती थीं जिनका घर में किसी तरह से इस्तेमाल नहीं हो सकता था, मतलब कुछ बोतलों में पानी भर के मनी प्लांट लगा दिया जाता था.कबाड़ में वही बोतले और शीशियाँ जाती थी जिनका कुछ प्रयोग  नहीं हो सकता था.
अखबार और किताबें खूब आती थी जब वो कबाड़ा में जाती तो उनका फिर से कागज़ बनाकर इस्तेमाल हो जाया करता था ,वैसे हमने अपने बचपन में अखबार से लिफाफे भी बनाये हैं .पेंट ख़राब हुई थो काटकर हम जैसे बच्चों की नेकर बन जाया करती थी.नेकर भी खराब हुई तो पोंछा बनने का विकल्प खुला था .चादर खराब हुई तो
कथरी बन गयी या झोला अगर फिर भी कसर बची हो तो पावदान के रूप में उसका इस्तेमाल हो सकता था .उसके बाद भी अगर घर में कपडे बचे रह गए तो होली दीपावली उन कपड़ों को देकर बर्तन लिए जा सकते थे .यह अपने आप में कबाड़ को नियंत्रित करने का सतत चक्र था जो पर्यावरण अनुकूल था . फिर वक्त बदला हम विकास के रोगी हुए उदारीकरण यूज एंड थ्रो का कल्चर लाया. ‘रिसाइकिल बिन’ घर की बजाय कंप्यूटर में ज्यादा अच्छा लगने लगा .मेरा घर जहाँ स्टील और कांच की बनी चीजें बहुतायत में थी वो धीरे –धीरे कम होती गयीं .जाहिर है मेरे मिडिल क्लास माता इतना नहीं पढ़े लिखे थे कि वो पर्यावरण की महत्ता को समझें बस वे सस्ता महंगा और टिकाऊ होने के नजरिये से चीजों को घर में जगह देते थे .हालाँकि हम भाई भी पढ़ लिख कर घर के खर्चे में हाथ बंटाने लगे.आमदनी तो बढ़ी पर घर में बेकार कपड़ों के झोले चादर के पावदान और पैंट काट कर नेकर बनाने का दौर नहीं लौटा .  कांच की बोतलों की जगह प्लास्टिक की बोतलें आ गयीं और धीरे –धीरे हम प्लास्टिक मय होते चले गए.बोतल शीशी से लेकर पैकेट तक सब जगह प्लास्टिक जिसे न तो हम घर में रिसाइकिल कर सकते थे और न ही कबाड़ी उनकी ओर टक टकी लगाकर देखता था .किचन से लेकर बाथ रूम तक हर जगह एक ही चीज दिखने लग गयी वो थी .प्लास्टिक.बात चाहे किचन में रखे जार की हो या कैरी बैग  की सब जगह प्लास्टिक ही प्लास्टिक.ये चीजें जब अपना जीवन चक्र पूरा कर लेती तो कूड़े के रूप में हमारे घर से निकल कर कूड़ेदान और रोड तक हर जगह दिखने लग गयीं.न तो इनकी कोई रीसेल वैल्यू थी और न ही इनके कबाड़ को नियंत्रित करने की स्वचालित व्यवस्था.हम समय की कमी का बहाना बना कर प्रकृति से कटे और उसकी कीमत हम न जाने कितने रोगों के रोगी बन कर दिखा रहे हैं और प्रकृति को जो चोटिल किया है उसको ठीक करने में न जाने कितना वक्त लगे.शायद यही विकास है .
प्रभात खबर में दिनांक 31/12/2019 को प्रकाशित 

Monday, December 30, 2019

विकास का आधार है स्वस्थ 'आधी आबादी'


स्वच्छता सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में से एक बड़ा मुद्दा है विकासशील देशों के विशेष सन्दर्भ में  इस परिस्थिति में  विशेषकर महिलाओं के स्वास्थ्य और  स्वच्छता के सम्बन्ध में मासिक धर्म पर बात करना भारत में अभी भी ऐसे विषयों की श्रेणी में आता है जिस पर बात करना वर्जित है| भारत में जहाँ पहले से ही इतनी स्वास्थ्य समस्याएं हैं वहां देश की आधी आबादी किस गंभीर समस्या से जूझ रही है इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है |महिलाओं का मासिक धर्म एक सहज वैज्ञानिक और शारीरिक क्रिया है|इस मुद्दे पर हाल ही में सेनेटरी नैपकिन कंपनी व्हिस्पर और मार्किट रिसर्च आई पी एस ओ एस के सर्वे के मुताबिक मासिक धर्म को लेकर गाँवों में ही नहीं बल्कि दिल्ली मुंबई चेन्नई और कोलकाता  जैसे शहरों के निवासियों में में भी कई तरह की भ्रांतियां हैं|सर्वे में भाग लेने वाली महिलाओं ने माना कि मासिक धर्म के दिनों में वे अचार का जार नहीं छूती,मंदिरों में नहीं जाती और अपने पतियों के साथ एक बिस्तर पर नहीं सोती|
 सेक्स शिक्षा के अभाव और मासिक धर्म जैसे संवेदनशील विषयों पर बात न करने जैसी परम्परा किशोरियों को एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा देती है जिससे निकलने के लिए वो जीवन भर छटपटाती रहती हैं|यह एक ऐसा विषय है जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में प्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से भी जुड़ता है।जब प्रजनन स्वास्थ्य की बात होगी  तो मासिक धर्म की बातअवश्यम्भावी हो जायेगी| ए सी नील्सन की रिपोर्ट सेनेटरी प्रोटेक्शन:एवरी विमेंस हेल्थ राईट के अनुसार मासिक धर्म के समय स्वच्छ सेनेटरी  पैड के अभाव में देश की सत्तर प्रतिशत महिलायें प्रजनन प्रणाली संक्रमण का शिकार होती हैं जो कैंसर होने के खतरे को बढाता है| पर्याप्त साफ़ सफाई और स्कूल में उचित शौचालयों के अभाव में देश की तेईस प्रतिशत किशोरियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं|भारत में सांस्कृतिक - धार्मिक वर्जनाओं के कारण मासिक धर्म को प्रदूषित कर्म की श्रेणी में माना जाता है|यह वर्जनाएं भारत में क्षेत्र की विविधता के बावजूद सभी संस्कृतियों में समान रूप से मौजूद हैं|मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं और किशोरियों को  घर के सामान्य काम से दूर कर दिया जाता है जिनमें खाना बनाने से लेकर से पूजापाठ जैसे काम शामिल हैं|वैज्ञानिक द्रष्टिकोण और सोच के अभाव में यह परम्परा अभी भी शहरी और ग्रामीण इलाकों में जारी है|किशोरियां भारत की आबादी का पांचवा हिस्सा है पर उनकी स्वास्थ्य जरूरतों के मुताबिक़ स्वास्थ्य कार्यक्रमों का कोई ढांचा हमारे सामने नहीं है|
छोटे शहरों और कस्बों के स्कूलों में महिला शिक्षकों की कमी और ग्रामीण भारत में सह शिक्षा के लिए परिपक्व वातावरण का न होना समस्या को और भी जटिल बना देता है |क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रजनन अंगों के बारे में जानकारी देना शिक्षकों के लिए अभी भी एक चुनौती है|पाठ्यक्रम में शामिल ऐसे विषयों पर बात करने से स्वयम शिक्षक भी हिचकते हैं और छात्र छात्राओं को ऐसे विषय खुद ही पढ़ कर समझने होते हैं| सेक्स शिक्षा की जरुरत पर अभी भी देश में कोई सर्व स्वीकार्यता नहीं बन पायी है,जब भी इस मुद्दे पर एक सर्व स्वीकार्यता की बात शुरू होती है हम अभी इसके लिए तैयार नहीं हमारी संस्कृति को इसकी जरुरत नहीं है जैसे कुतर्क ऐसे किसी भी प्रयास को नाकाम कर देते हैं |हिन्दुस्तान लेटेक्स फैमली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सेनेटरी पैड का प्रयोग कुल महिला जनसँख्या का मात्र दस से ग्यारह प्रतिशत होता है.जो यूरोप और अमेरिका के 73 से 92 प्रतिशत के मुकाबले नगण्य है|
आंकड़े खुद  ही अपनी कहानी कह रहे हैं कि मासिक धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश अभी भी अठारहवीं शताब्दी की मानसिकता में जी रहा है|शहरों में विज्ञापन और जागरूकता के कारण यह आंकड़ा पचीस प्रतिशत के करीब है पर ग्रामीण भारत में सेनेटरी पैड और मासिक धर्म,स्वच्छता स्वास्थ्य जैसे मुद्दे एकदम गायब हैं|सेनेटरी पैड के कम इस्तेमाल के कारणों में जागरूकता का अभाव,उपलब्धता और आर्थिक सामर्थ्य का न होना जैसे घटक शामिल हैं|सरकार ने 2010 में मासिक धर्म स्वच्छता योजना,राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत शुरू की थी जिसमें सस्ती दरों पर सेनेटरी पैड देने का कार्यक्रम शुरू किया पर सामजिक रूढिगत वर्जनाओं के कारण इस
प्रयास को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है|सेनेटरी पैड तक पहुँच होना ही एक चुनौती नहीं  है प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड का क्या किया जाए यह भी एक गंभीर प्रश्न है|मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डॉ विवियन होफमन ने अपने एक शोध में पाया कि बिहार की साठ प्रतिशत महिलायें
  प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड या कपड़ों को खुले में फैंक देती हैं|प्रजनन अंग संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं में सेनेटरी पैड के अलावा साफ़ पानी और निजता(प्राइवेसी ) की कमी भी समस्या एक अन्य आयाम है|मेडिकल प्रोफेशनल भी इस मुद्दे को उतनी गंभीरता से नहीं लेते जितना की अपेक्षित है, मेडिकल स्नातक स्तर इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक भी अध्याय पाठ्यपुस्तकों में शामिल नहीं है|
सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों जैसे पल्स पोलियो,परिवार नियोजन,चेचक खसरा  पर जितना जोर दिया गया है उतना जोर मासिक धर्म,प्रजनन अंगों के स्वास्थ्य आदि मुद्दों पर नहीं दिया जा रहा है | पल्स पोलियो,परिवार नियोजन,चेचक खसरा आदि बीमारियों से बचाव के लिए अनेक जागरूकता कार्यक्रम चलाये गए और दवाओं पर भी पर्याप्त मात्रा में धन खर्च किया गया पर मासिक धर्म स्वास्थ्य जैसा मुद्दा देश में महिलाओं की स्थिति की तरह हाशिये पर ही पडा रहा| इस दिशा में मेडिकल और पैरा मेडिकल हेल्थ प्रोफेशनल को संयुक्त रूप से ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है| महज़ सेनेटरी पैड बाँट भर देने से जागरूकता आने की उम्मीद करना बेमानी है | राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के अंतर्गत सरकार ने प्रत्‍येक गांव में एक महिला प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) की नियुक्ति का प्रावधान किया है प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) समुदायों के बीच स्‍वास्‍थ्‍य सक्रियता पहल करने में सक्रिय है,उन्हें मासिक धर्म स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पर जोड़ा जाए और आशा कार्यकर्ता गाँव -गाँव जा कर लोगों को जागरूक करें और महिलाओं की इस मुद्दे के प्रति हिचक तोड़ने का प्रयास करें. जिससे इस समस्या से लोग रूबरू हो सकें और एक बड़े स्तर पर एक संवाद शुरू हो सके और रूढिगत वर्जनाओं  पर प्रहार हो| आमतौर पर जब तक समाज में यह धारणा रहेगी कि मासिक धर्म महिलाओं से जुड़ा एक स्वास्थ्य मुद्दा मात्र है तब तक समस्या का वास्तविक समाधान होना मुश्किल है यह मुद्दा मानव समाज से जुड़ा मुद्दा है जिसका सीधा सम्बन्ध देश के मानव संसाधन से जुड़ा है.स्वस्थ और विकसित समाज का रास्ता स्वस्थ और शिक्षित महिलाओं से होकर ही गुजरता है|
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 30/12/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, December 24, 2019

नामुमकिन है विशाल समंदर को साफ़ करना


तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ने हवा-पानीरहित खतरनाक भविष्य का खाका खींचना शुरू कर दिया है। समय रहते समाधान नहीं किया गया तो आने वाला कल कैसा होगा इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। यह समस्या  अंतरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी है। विकसित या विकासशील देश ही नहीं, पूरा विश्व इसकी चपेट में है। इसलिए तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र संघ इस समस्या से निजात पाने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और  पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों में कूड़ा प्रबंधन भी है। कूड़ा पृथ्वी के लिए ही नहीं बल्कि समुद्रों के लिए भी बड़ा खतरा बनता जा रहा है। आमतौर पर यह मान्यता है कि सागर बहुत विशाल है, इसमें कुछ भी डाल दिया जाए तो पर्यावरण पर इसका फर्क नहीं पड़ेगा। पर वास्तविकता इसके उलट है। धरती पर उपलब्ध पानी का लगभग 97 प्रतिशत सागर में है। सागर हमारी धरती के लगभग 71 प्रतिशत हिस्से पर है। सागर की उपस्थिति पर धरती का अस्तित्व निर्भर करता है। परंतु विगत कुछ वर्षो से धरती पर मौजूद अन्य जलाशयों की भांति ही मनुष्यों ने सागर को भी अपने अविवेकपूर्ण एवं लापरवाह आचरण का शिकार बनाना शुरू कर दिया है और अधिक   चिंताजनक विषय यह है कि इस ओर हमारे पर्यावरणविदों का ध्यान न के बराबर ही है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन, रोजगार और ऊर्जा मुहैया कराने का दारोमदार भी अब समुद्रों पर है। तीन दशक पूर्व बड़े देश अपना कचरा जहाजों में भरकर समुद्रों में डालते रहे हैं। 
1998 में ऐसे ही कचरे के कारण नाइजीरिया भीषण त्रासदी से गुजरा, जिसके कोको बंदरगाह में इटली की एक कम्पनी 3800 टन खतरनाक कचरा छोड़ गई। कचरे में रेडियो एक्टिव पदार्थ होने से लोग मरने लगे। कोको में बचे लोगों को स्थानांतरित करना पड़ा। लेकिन भारी तादाद में समुद्री जीव-जंतुओं, मछलियों के नुकसान की भरपाई नहीं हो सकी। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भूमि संसाधनों पर निरंतर बढ़ते जा रहे दबाव से यह तो तय है कि आने वाले वक्त में हमें अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए सागर की ही शरण में जाना पड़ेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने सागर का संरक्षण करें। सागर में हम प्लास्टिक से लेकर रेडियोधर्मी कचरे तक सब कुछ डाल रहे हैं। सागर के लिए सबसे बड़ा खतरा है प्लास्टिक। बदलती जीवन शैली, ‘प्रयोग करो और फेंकोकी मनोवृत्ति और सस्ते प्लास्टिक की उपलब्धता ने प्लास्टिक का उत्पादन और कचरा दोनों ही बढ़ाया है। प्लास्टिक कचरे के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था अभी सभी देशों के पास उपलब्ध नहीं है।  पर्यावरण संस्था ग्रीन पीस के आंकलन के मुताबिक हर साल लगभग 28 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जिसका बीस प्रतिशत हिस्सा सागर में चला जाता है। कितना प्लास्टिक हमारे सागर के तल में जमा हो चुका है इसका वास्तविक अंदाजा किसी को नहीं है। उल्लेखनीय है कि ये कचरा सागर के ऊपर तैरते कचरे से अलग है। प्लास्टिक की वजह से समुद्री खाद्य श्रृंखला पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक की वजह से न केवल समुद्री जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, बल्कि पूरे के पूरे समुद्री पारितंत्र के भी बिखरने का खतरा उत्पन्न हो गया है। पेयजल, ठंडे मीठे पेय की पैठ सुदूर अंचलों तक हो चली और जगह-जगह प्लास्टिक के अंबार लगते जा रहे हैं। पानी पाउच, फास्ट फूड पैकेट्स, नमकीन की थैलियां आदि हर गली, मुहल्ले, रेलवे स्टेशनों और जंगल पहाड़ों से गुजरते रेल मार्ग और सड़क मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। इनके निस्तारण की उचित व्यवस्था न होने से समुद्र इनके लिए अंतिम शरणस्थली बनते हैं। 
प्लास्टिक को प्रकृति नष्ट नहीं कर सकती, कीड़े खा नहीं सकते, इसलिए समूचे प्रकृति चक्र में यह अपना दुष्प्रभाव फैला रहा है। ग्रीनपीस संस्था के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दस लाख पक्षी और एक लाख स्तनधारी जानवर समुद्री कचरे के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 14 हजार करोड़ पाउंड कूड़ा-कचरा सागर में फेंका जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्री कचरे का लगभग अस्सी प्रतिशत जमीन पर इंसानी गतिविधियों तथा बचा हुआ बीस प्रतिशत सागर में इंसान की गतिविधियों के फलस्वरूप आता है। जापान में 2011 में आई सुनामी ने प्रशांत महासागर में कूड़े का एक सत्तर किमी लंबा टापू बना दिया। यह तो केवल एक उदाहरण भर है। विश्व भर में समुद्री कूड़े से बने ऐसे अनेकों टापू हैं और यदि सागर में कूड़ा डालने की मौजूदा गति बरकरार रही तो वह दिन दूर नहीं जब सागर में हर तरफ सिर्फ कूड़े के टापू ही नजर आएंगे। समुद्री कचरा जमीनी कचरे की तरह एक जगह इकट्ठा न होकर पूरे सागर में फैल जाता है। यह पर्यावरण, समुद्री यातायात, आर्थिक और मानव स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचाता है। समुद्र में पानी की तरह कचरा भी लगातार बह रहा है। लहरें उन्हें अपने साथ ले जाती हैं- एक जगह से दूसरी जगह, एक महासागर से दूसरे महासागर। उत्तर प्रशांत सागर में तो ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच की बात कही जाती है। कचरे का यह कालीन मध्य यूरोप के बराबर है। विश्व के कई देशों में इस समस्या का हल खोजने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। भारत में भी वर्ष 2000 में ठोस कचरे के निस्तारण को लेकर एक नीति बनाई गई थी, पर वह आज भी कागजों पर ही है। हम अपने सीवेज के केवल तीस प्रतिशत का ही निस्तारण कर पाते हैं। बाकी का सीवेज वैसे का वैसा ही नदियों में डाल देते हैं जो अंतत: सागर में जाता है। देश की आठ हजार किमी लंबी तटरेखा सघन रूप से बसी हुई है जिसमें मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गोवा और सूरत जैसे शहर शामिल हैं। तथ्य यह भी आर्थिक रूप से विकसित इन शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है और शहर अपने कूड़े को सागर में डाल रहे हैं। अल्पविकसित देशों के लिए कूड़ा निस्तारण हेतु सागर एक अच्छा विकल्प साबित होते हैं। इससे समस्या का फौरी तौर पर तो समाधान हो जाता है, पर लंबे समय में यह व्यवहार पर्यावरण और मानवजाति के लिए खतरा ही बनेगा। विशालता के कारण समूचे सागर की सफाई संभव नहीं है। इससे बचने का एकमात्र रास्ता जागरूकता और बेहतर प्लास्टिक कूड़ा प्रबंधन है। इस दिशा में ठोस पहल की जरूरत है। सागर की स्थिति में स्थाई सुधार के लिए सरकारों और लोगों की सोच में बदलाव आना जरूरी है।
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 24/12/2019 को प्रकाशित 

Monday, December 23, 2019

बर्फ देखकर रहा नहीं गया

यूँ तो लोग कश्मीर खूब घुमने जाते है ज्सिमें श्रीनगर ज्यादा महत्वपूर्ण होता है पर हम श्रीनगर की बजाय अनन्तनाग जा रहे थे . जम्मू से अनंतनाग के बीच की लगभग 250 किलोमीटर की दूरी है जिसे मुझे सड़क मार्ग से तय करनी थी. आप सबको बताता चलूँ जम्मू से समूचे कश्मीर को जोड़ने का एक ही रास्ता है जिसे NH -1 के नाम जाना जाता है जो जम्मू से श्रीनगर जाता है वैसे 250 किमी की दूरी कोई ज्यादा नहीं लगती पर जब मामला पहाड़ों का हो तो  समय ज्यादा लगना स्वाभाविक है. जम्मू से उधमपुर तक रोड बहुत बढ़िया थी ऐसा नहीं लग रहा था कि हम पहाड़ों के रास्ते में थे.उधमपुर में “पटनीटॉप” नाम का एक टूरिस्ट डेस्टीनेशन पड़ता है जो जम्मू से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर है.हमारे ड्राइवर ने इसे गरीबों का श्रीनगर बताया आतंकवाद के चरम दिनों में जब पर्यटकों का कश्मीर घाटी जाना बंद हो गया तो लोग जम्मू क्षेत्र में पटनी टॉप में बर्फबारी का आनंद देखने आने लग गए और धीरे धीरे ये एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो गया.सड़क पर जाम के कारण हमारी गाड़ी अक्सर रेंग रेंग कर बढ़ रही थी पर वो जाम कुंठित नहीं कर रहा था शायद आस पास के दृश्य इतने सुंदर थे कि मैं तो उन्हीं में रम सा गया.शायद यही कारण था कि जब भी जाम लगता ड्राइवर लोग एक दूसरे की मदद करते वो भी हंसते मुस्कुराते ज्यादातर सवारी गाड़ियों के ड्राइवर श्रीनगर को देश से जोड़ने वाले इस एक मात्र मार्ग पर चलते हैं इसलिए एक दूसरे से परिचित होते हैं और सडक पर एकदूसरे के हाल चाल लेते रहते हैं. पहाड़ों पर बर्फ बढ़ती जा रही थी और गाड़ी का शीशा खोलने का जोखिम नहीं लिया जा सकता था मैंने जेकेट भी पहन ली थी.रामबन हालाँकि जम्मू क्षेत्र में पड़ता है पर पहाड़ों पर बढ़ती बर्फ बता रही थी कि हम अनंतनाग  के करीब आ रहे थे.

हम जैसे जैसे धरती के स्वर्ग के करीब होते जा रहे थे सड़क और मौसम दोनों का मिजाज बदल रहा था.सड़क पर हिन्दी उधमपुर के बाद ही गायब होने लग गई मतलब दुकानों के नाम और सड़कों पर लगे मील के पत्थर उर्दू और अंग्रेजी भाषा में ही थे.हम हल्की बारिश में बर्फ की चादर में लिपटे पहाड़ों के बीच धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे.मैं बहुत ज्यादा उत्साहित हो रहा था चारों तरफ ऐसे दृश्य थे जो हमेशा मेरी कल्पना में रहे या उन्हें फ़िल्मी परदे पर ही देखा था पर यहाँ तो साक्षात चारों तरफ सब कुछ मेरी आँखों के सामने था. अब हमारी जवाहर गाड़ी टनल के अंदर प्रवेश कर गई.
इतनी लंबी सुरंग में चलने का पहली बार सौभाग्य मिल रहा था जम्मू को कश्मीर और सारे देश के सड़क मार्ग से जोड़े रखने का काम पहाड़ों को काट कर बनाई गई  ये ढाई किलोमीटर की सुरंग करती है.एक तरफ आने का मार्ग है दूसरी तरफ जाने का मार्ग अंदर पीले बल्ब टिमटिमा रहे थे.जैसे ही हम सुरंग से बाहर निकले जैसे लगा कोई पर्दा खुला अद्भुत दृश्य था.हम सचमुच कश्मीर में प्रवेश कर गए थी चारों तरफ बर्फ से लदे  पहाड क्या शानदार दृश्य था.
अब हम बनिहाल से गुजर रहे थे उसके बाद क़ाज़ीगुंड और हमारी मंजिल अनंतनाग जहाँ मेरे मित्र सौगत हमारे इंतज़ार में थे.चूँकि सौगत को यहाँ आये हुए अभी एक महीना ही हुआ था इसलिए वो भी अकेले थे उनका परिवार जम्मू से होली वाले दिन हमसे जुड़ने वाला था तो दो पुराने दोस्त मिलने वाले थे.अब माहौल एक दम बदल गया था सड़कों पर भीड़ भाड़ एकदम कम हो रही थी.किसी किसी गाँव में चहल पहल दिखी पर गाडियां सिर्फ सड़कों पर दिख रही थी.
किशोर और बच्चे फिरन (कश्मीरी पहनावा ) पहने और अंदर कांगड़ी(अंगीठी) लिए इधर उधर दिख रहे थे.महिलायें और लड़कियां सड़क पर बनिहाल के बाद से बिलकुल भी नहीं दिखी.मैंने कहीं पढ़ा था जिंदगी स्याह सफ़ेद नहीं होती पर यहाँ जो मैं प्रकृति का रूप देख रहा था वो एकदम स्याह- सफ़ेद था चारों तरफ बर्फ और उसके बाद जो कुछ भी था वो चाहे किसी भी रंग का हो, दिख काला ही रहा था चाहे वो पेड़ हों या कुछ और पर इस स्याह सफेद वातावरण में ,मैं जिंदगी के सारे रंग देख रहा था.लोग प्रकृति से लड़ते जूझते जी रहे थे,पहाड़ों का जीवन वैसे भी कठिन होता है,मैं सैलानी बना अपने दोस्त से मिलने जा रहा था. बत्तियाँ जल चुकी थी और सडक पर सन्नाटा, ऐसी ही बर्फ से भरी सड़क पर हमारी गाड़ी अनंतनाग (खन्नाबल)के सरकारी अतिथिगृह में पहुँच रही थी.
हम अनंतनाग में थे.           
स्ट हाउस के चारों तरफ बर्फ पडी थी हम उसी बर्फ के बीच रास्ता बनाकर अपने कमरे में पहुंचे. गेस्टहाउस का वास्तु कश्मीर की शैली का था फर्श और छत लकड़ी की जिससे वो कमरे की गर्मी को बचा सकें और छत त्रिभुजाकार तिरछी जिससे बर्फ छत पर न रुके और नीचे आ जाए.वैसे भी ऐसे क्षेत्र जहाँ बर्फ गिरती है आप वहां के घरों में छत ढूढते रह जायेंगे क्यूंकि घरों में छत नहीं होती है.
                   
 दिन सुबह थोड़ी देर से आँख खुली सुबह के आठ बजे थे पर ऐसा लगा पूरा अनंतनाग अभी सो ही रहा है कोई शोर शराबा नहीं सब कुछ थमा हुआ.बाहर बर्फ के ढेर और एक अलसाई सुबह ऐसा लगता है सूरज के दर्शन आज नहीं होने वाले.भारत के अधिकाँश हिस्सों में आज होली का त्यौहार मनाया जा रहा था पर यहाँ होली का दूर दूर तक कोई नाम लेवा नहीं .नाश्ते में  खालिस कश्मीरी गिर्दा और लवासा (कश्मीरी रोटी) के साथ मक्खन सब्जी हमें परोसा गया .
पहलगाम अनंतनाग से तीस किलोमीटर दूर है लेकिन पहले यह तय हुआ कि यहाँ कोई सूर्यमंदिर है जो कोणार्क से भी पुराना है तो पहले मैंने उसे देखने का फैसला किया.पहली बार अनंतनाग शहर को करीब से देख रहा था.बिजली की समस्या है पर उतनी नहीं जितनी उत्तरप्रदेश में है सड़कें जल्दी टूटती हैं कारण भ्रष्टाचार नहीं हर साल होने वाली बर्फबारी है,बर्फ को हटाने के लिए भारी मशीने इस्तेमाल की जाती हैं जो सड़क को नुकसान पहुंचाती हैं.शहर और आस पास के गाँवों में आने जाने के लिए सूमो टैक्सी के रूप में इस्तेमाल होती हैं. गोश्त में ज्यादातर भेंड काटी जाती हैं या मुर्गा ,भेंड का गोश्त बकरे के मुकाबले थोडा सख्त होता है अखरोट खूब होता है यहाँ पचास पैसे का एक अखरोट और सेब अधिकतम तीस से चालीस रुपये किलो,हमें बिलकुल अंदाज़ा नहीं था लखनऊ से चलते वक्त की मार्च के महीने में इतनी ठण्ड और बर्फ झेलनी पड़ेगी. अनंतनाग  सुबह देर से जगता और शाम को जल्दी सो जाता.सड़कों पर फिरन पहने ज्यादातर 
पुरुष सड़कों पर दिखते लड़कियां बहुत कम दिख रही थी.मेरा अपना ओबसर्वेशन और लोगों से हुई बात चीत के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँच गया कि कश्मीर में गरीबी नहीं है पर बेरोजगारी बहुत है.कोई भी इंसान भूखा नहीं सोता भीख मांगने वाले लोग कम से कम मुझे तो नहीं दिखे.बाजार हों या मोहल्ले भीड़ भाड़ तो दिख रही थी पर मुझे न जाने क्यूँ ये शहर सूना सूना लग रहा था.हर शहर का अपना एक माहौल होता है शोर होता वो गायब था शहर में एफ एम् स्टेशन था पर कहीं कोई गीत संगीत की आवाज नहीं ये धर्म का मामला था या सभ्यता की निशानी मेरी समझ से परे है. 
कोई हवा में मोबाईल लहराता कोई गाना सुनता नहीं दिखा.सारे साईन बोर्ड उर्दू या अंग्रेजी में पूरे अनंतनाग में सिर्फ शहर के बाहरी हिस्से में फ़ूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया का एक गोदाम ऐसा था जिसमें हिन्दी में खाद्य निगम लिखा था.मकानों में ज्यादा रंग रोगन नहीं किया जाता और उनकी बाहरी सजावट पर भी कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता अधिकतर मकान सूने सूने लगते.सेना के जवान चौराहों पर दिखते हैं पर बहुत ज्यादा नहीं है.पान और गुटखे की दुकाने एकदम न के बराबर हैं पर ऐसा नहीं था कि बिलकुल भी न हों.मैंने एक बात गौर की लोग सिगरेट बहुत पीते हैं इसके पीछे क्या कारण है कोई बताने वाला नहीं मिला पर मुझे लगता है कहीं न कहीं बेरोजगारी से पैदा होने वाला तनाव और सेना की इतने लंबे समय से उपस्थिति इसका कारण हो सकता है.शराब की एक भी दूकान नहीं है. सरकारी आबकारी नीति का पता नहीं पर श्रीनगर में मैंने एक शराब की दूकान को बंकरनुमा दडबे में देखा मुझे बताया गया.इस दूकान को बंद कराने के लिए यहाँ ग्रेनेड हमला किया गया तब से ऐसा हाल है.
हम लोग पहलगाम के रास्ते पर पड़ने वाले मार्तंड मंदिर की तरफ बढ़ चले.
मैंने एक बात खास देखी जैसे हमारे यहाँ पुर ,नगर जैसे विशेषण मोहल्लों  या रिहाईश के लिए इस्तेमाल होते हैं वैसे यहाँ “बल” का प्रयोग होता है जैसे खन्ना बल,गांदरबल ,हज़रत बल,मैंने इसका कारण जानने की कोशिश की तो जो पता चला वो यह था कि पुराने वक्त में कश्मीर में जगह जगह पानी था या पहाड तो “बल” उस सूखी जगह को कहते हैं. जहाँ लोग आकर व्यापार करते थे धीरे धीरे लोग वहाँ आकर बसने लोग और उसे सूखे स्थान के नाम के आगे “बल” लग गया.कश्मीर में आपको “बल” काफी सुनने को मिलेगा.अब मार्तंड मंदिर देखने की बारी थी .जाहिर है मंदिर एक ऐसी जगह था जहाँ कभी हिंदू आबादी ज्यादा रहती थी.मंदिर में घुसते मुझे झटका सा लगा मैं किसी प्राचीन स्थापत्य वाले मंदिर की कल्पना कर रहा था पर वहां तो सारा मामला नया था.एक बड़े तालाब की पीछे तीन गुम्बद ,तालाब में खूब सारी मछलियाँ जिनको लोग आंटे की गोलियाँ खिलाते थे और कुछ भी नहीं और पुजारियों का नाटक कहाँ से आये हैं पूजा करवा लो चूँकि मैं मंदिर पर्यटन की द्र्ष्टि से गया था न कि दर्शन करने तो मैंने कुछ तस्वीरें खींची और पुजारी से पूछा कि पुराना मंदिर कहाँ है उसने कहा यही है.
मुझे लगा कुछ गलतफहमी हुई होगी या पुराना मंदिर भूस्खलन में गिर गया होगा उसकी जगह नया बनवाया गया होगा तो वहां से हम पहलगाम के लिए चले अभी तक थोड़ी बहुत सूरज की रौशनी थी पर धीरे धीरे वो रौशनी कम होती गयी और उसकी जगह बदली और धुंध ने ले ली.इसी रास्ते पर “बटकूट” गाँव पड़ा.इसी गाँव के मलिक नामके बाशिंदे ने सबसे पहले अमरनाथ गुफा खोजी थी और उसके वंशजों को अमरनाथ श्राइन बोर्ड आज भी एक निश्चित धनराशि देता है यूँ कहें धन्यवाद कहने का एक तरीका सौगत ने बाद में मुझे बताया कि इस धनराशि को लेकर मलिक के वंशजों में अब मुकदमेबाजी हो रही है.एक बार फिर हम धुंध और बरफ में खो जाने वाले थे.हमारे साथ स्थानीय लिद्दर नदी बह रही थी.गनीमत थी कि नदी नहीं जमी थी बाकी सबकुछ सफ़ेद सिर्फ नदी का पानी बह रहा था बाकी सब कुछ थमा हुआ शांत मैंने खिड़की खोली तो ठंडी हवा ने ऐसा स्वागत किया कि मुझे खिड़की बंद करनी पडी.ये एक ऐसी खूबसूरती है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है.पहलगाम ही वो जगह है जहाँ से “अमरनाथ”यात्रा शुरू होती है.पह्लगाम गर्मियों में अपनी हरियाली के लिए और जाड़ों में बर्फ के लिए प्रसिद्द है.हम घूमते हुए बेताब वैली की तरफ चले.बेताब वैली के नामकरण की अजीब कहानी है मुझे बताया कि अस्सी के दशक में यहाँ बेताब फिल्म की शूटिंग हुई थी.
 तबसे यह जगह पर्यटन के मानचित्र में उभरी नहीं तो सिर्फ स्थानीय लोगों के अलावा यहाँ कोई नहीं आता पर अब ये एक बड़ा टूरिस्ट डेस्टीनेशन है .मन मोहने वाला द्रश्य सिर्फ लिद्दर नदी एक छोटी सी धार दिख रही थी चारों ओर सिर्फ बर्फ बर्फ मैं थोड़ी देर प्रकृति के इस रूप के साथ रम सा गया.भीड़ भाड़ खूब थी पर जितनी बर्फ हमारे चारों तरफ थी उस हिसाब से ठण्ड नहीं थी.बरफ इतनी ज्यादा थी कि सैलानियों के लिए लोग हाई बूट किराए पर दे रहे थे पर मुझे अपने वुडलैंड पर पूरा भरोसा था दूसरा मैंने फैसला किया कि मैं ज्यादा बर्फ के अंदर नहीं जाऊँगा.कुछ लोग दस रुपये में लकड़ी का डंडा बेच रहे थे जिससे लोग बर्फ में चल सके. नवविवाहित जोड़े काफी दिख रहे थे जो शायद हनीमून मनाने पहलगाम आये थे.अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैं वाकई खुशनसीब हूँ ये खूबसूरती देखना कितने लोगों को नसीब होता है दोपहर होने वाली थी हम थोड़ी देर और घूमना चाह रहे थे. हमने बर्फ के मैदानों के चक्कर लगाये पहलगाम गोल्फ कोर्स ,अक्कड़ पार्क सब बर्फ में दबे थे और बगल में लिद्दर नदी बही जा रही थी.सौगत के आते ही हम भोजन पर टूट पड़े पर मुझे “कहवा” ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
ठण्ड से बचने के लिए कश्मीर में कहवा एक आवश्यक आवश्यकता है कहवा  पाउडर के साथ केशर बादाम पिस्ता वाह वाह.
शाम ढलने लगी थी और हम अनंतनाग लौट पड़े. शाम को मेरी मांग पर मछली की व्यवस्था की गयी मैंने मूली में पकी ट्राउट मछली पहली बार खाई.कश्मीरी वाजवान का यह अनुभव भी शानदार रहा,जैसे हम खाने को दस्तरख्वान बोलते हैं कश्मीर में इसे वाजवान बोला जाता है .
आज बड़ी होली का दिन था और सौगात का परिवार भी अनंतनाग जम्मू से आने वाला था तो कहीं बाहर न जाकर अनंतनाग में ही रहने का फैसला किया गया.पहले हम एक पुराने मंदिर गए होली के हुडदंग में जहाँ देश के अधिकाँश हिस्से  डूबे  थे. होली वाले दिन हमें उस मंदिर में कुछ गुलाल के चिह्न मंदिर में देखने को मिले वास्तव में भारत विविधताओं का देश है.उस मंदिर को देखकर मुझे एहसास हुआ कि एक वक्त यहाँ हिंदू धर्म  मानने वालो की प्रधानता रही होगी और यहाँ नागों की बहुतायत  रही होगी शायद इसी वजह से इसका नाम अनंतनाग पड़ा.मंदिर में घुसने से पहले हमारे साथ जो सुरक्षा गार्ड था. उसने सेना के जवानों को बताया हम मेहमान थे और मंदिर घूमना चाहते हैं तब हमें अंदर जाने दिया गया मंदिर के गेट पर एक बंकरनुमा चेक पोस्ट था उसके बाद मंदिर की शुरुवात होती है.पता पड़ा इस मंदिर के प्रांगण में सी आर एफ के जवान भी डटे हैं ये पता नहीं पड़ पाया कि वो मंदिर की सुरक्षा के लिए रुके हैं या उनकी यूनिट अस्थाई रूप से यहाँ कुछ दिन के लिए है.चारों तरफ मुस्लिम बाहुल्य इलाका बीच में ये मंदिर इस बात का गवाह है कि इतिहास के पन्नों में काफी कुछ बार बार बदला है.मंदिर में सन्नाटा पसरा था कोई पुजारी मुझे नहीं दिखा.कश्मीर के मंदिरों में मुझे एक जलाशय जरुर दिखा जिसमें पहाडो से आता साफ़ पानी इकट्ठा होता रहता है मंदिर के बाहर जलाशय से निकले उस पानी में लोग अपने दैनिक क्रिया क्रम निपटाते दिखे और हाँ उस कुण्ड में बहुत बड़ी बड़ी मछलियाँ भी पली रहती हैं.दर्शानार्थी उन्हें आंटे की गोलियाँ खिलाते और मंदिर में  होने के कारण उनका शिकार नहीं किया जाता तो उनका जीवन बड़े सुकून का होता है.मंदिर की दशा बता रही थी कि उसका जीर्णोधार किया गया है और काम अभी भी जारी है.इस मंदिर के कुंड में नाग जैसी आकृति के पौधे निकले हुए थे.आप तस्वीर में देख सकते हैं. असल में जिस सूर्य मंदिर को हम देख कर आये थे वो असली सूर्य मंदिर नहीं था.इंटरनेट की मदद से उस असली सूर्यमंदिर के भग्नावेशों को ढूढ निकाला गया पता पड़ा पुजारी ने हमें बेवकूफ बनाया असली सूर्य मंदिर उस मंदिर से आठ किलोमीटर दूर पहाड़ी पर मटन नाम की जगह पर है. ये मंदिर कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पुराना है.मैं सोच रहा था जम्मू कश्मीर सरकार को अपने टूरिस्ट डेस्टिनेशन की ठीक से ब्रांडिंग  करनी चाहिए जिससे श्रीनगर पहलगाम ,गुलमर्ग जैसी जगहों पर से पर्यटकों का बोझ कम किया जाए मैंने इससे पहले राजोरी में भी यही महसूस किया कि यहाँ इतनी खूबसूरत जगहें हैं पर वहां कोई घूमने नहीं आता अब आतंकवादी घटनाओं का वैसा कोई खौफ नहीं. अब सूर्य मंदिर के बारे में कितने कम लोग जानते हैं.
  
शाम को हम उस असली मार्तंड मंदिर को खोजने चल पड़े जिसके बारे में माना जाता है सातवीं –आठवीं शताब्दी में इसका निर्माण हुआ.ये एक ऐसे पठार पर बना हुआ है जहाँ से पूरी कश्मीर घाटी देखी जा सकती है पर अब इस विशालकाय मंदिर के ही खंडहर ही बचे हैं.उन खंडहरों के बीच जा कर लगा कि जब ये मंदिर अपने भव्य स्वरुप में रहा होगा तो कई किलोमीटर दूर से दिखता रहा होगा पर अब सिर्फ भग्नावशेष बचे हैं जिनकी भी कोई ठीक से देखभाल नहीं है मंदिर को सिर्फ कंटीले बाड़ों से घेरा गया है और भारतीय पुरात्व विभाग का बोर्ड ही ये बताता है कि ये कोई महत्वपूर्ण इमारत है.बारिश हो रही थी फिर भी हमने भीगते हुए मंदिर को पूरा देखा.शाम को एक और अनोखी चीज से हमारा परिचय होना था.चूँकि कश्मीर में खतरनाक वाली ठण्ड पड़ती है इसलिए जो लोग साधन संपन्न लोग होते हैं वो कमरे के नीचे की जगह को खोखला छोड़ते हैं जिससे वहां जलती हुई लकडियाँ डाली जा सकें और फर्श लकड़ी की न बनवाकर उसकी जगह पत्थर लगवा देते हैं जिससे लकड़ी की गर्मी पत्थर में जाती है और पत्थर के ऊपर मोटा कालीन बिछा रहता है जिससे कालीन के साथ –साथ कमरा भी गरम रहता है .ये उपाय आधुनिक उपायों के मुकाबले ज्यादा स्वास्थ्यप्रद होता है .हीटर या ब्लोअर शरीर में पानी की कमी पैदा कर देते हैं जबकि इसमें ऐसा नहीं होता.
अगर आतंकवाद की घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर में अपराध की दर काफी कम है.छोटे मोटे अपराध को छोड़ दें तो महीनों हो जातें किसी संगीन वारदात को घटे हुए.
अनंतनाग से श्रीनगर की दूरी लगभग 55 किलोमीटर है और पुलवामा नाम एक और जिला में पड़ता है.
पुलवामा में ही अवान्तिस्वामी मंदिर के भग्नावशेष हैं.यह मंदिर भी मार्तंड मंदिर के आस पास बना विष्णु मंदिर है जिसे राजा ललितादित्य ने बनाया था पर अब ये सिर्फ खंडहर ही मंदिर का वास्तु भी मार्तंड मंदिर से मिलता जुलता है.हालंकि यहाँ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहाँ अच्छा काम किया है यहाँ मंदिर में आने का टिकट लगता है.मंदिरों के मामले में मैंने देखा कि कोई भीड़ नहीं थी जबकि ये पुरातत्व से जुडे हुए स्थल सभी के महत्व के हैं पर शायद लोग कश्मीर यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता देखने आते हैं.पुलवामा कश्मीर की दूध राजधानी है यहाँ का दूध पूरी कश्मीर घाटी में भेजा जाता है सबसे ज्यादा श्रीनगर में .बारिश लगातार हो रही है और हम भीगते ठंडाते पर्यटन का मजा लूट रहे थे.मेरा नोट पैड लगातार भरता जा रहा था.मैं सौगत का आभारी हूँ कि उसे पता था कि मैं किस तरह की यात्राओं  को जीता हूँ इसलिए मेरे काम की चीजें सारी चीजें गाड़ी में डलवा दी गयी थी जब हम निकले थे तो बदली थी बारिश होने का कोई लक्षण नहीं दिख रहा था फिर भी छाता हमारे साथ था.अब हम शहर छोड़ चुके थे चारों तरफ चौड़े खेत दिखाई पड़ रहे थे. ये खेत केसर के थे पर अभी मौसम न होने के कारण हमें केसर को देखने का मौका नहीं मिला.
कब जाएँ 
अन्नत नाग मार्च से नवम्बर महीने जाने के लिए सबसे सर्वोत्तम है |जाड़ों में बहुत ठंड और बर्फबारी होती है |
कैसे जाएँ :
रेल मार्ग से जम्मू तक जाया जा सकता है फिर सडक मार्ग से जाया जा सकता है या फिर वायु मार्ग से श्रीनगर तक जा कार वहां से टैक्सी द्वारा अनन्त नाग पहुंचा जा सकता है |

दैनिक जागरण के यात्रा  परिशिष्ट  में 22/12/19 को प्रकाशित 

Thursday, December 19, 2019

बदलाव के बयार में बदली गाँवों की सूरत


गाँव की चिंता सबको है आखिर भारत गाँवों का देश है पर क्या सचमुच गाँव तो  जिन्दा हैं पर गाँव की संस्कृति मर रही है गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में आ रहा है पर उस बाजार में गाँव की बनी हुई कोई चीज नहीं है.सिरका,बुकनू(नमक और विशेष मसालों का मिश्रण)पापड जैसी चीजों से सुपर मार्केट भरे हैं पर उनमें न तो गाँवों की खुशबू है न वो भदेसपन जिसके लिए ये चीजें हमारे आपके जेहन में आजतक जिन्दा हैं .सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहद.विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं भावनाएं संवेदनाओं की कोई कीमत नहीं .वैश्वीकरण का कीड़ा और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है और गाँव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं .गाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है.विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है .भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक  व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए.इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी.गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए.इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है, दूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे  हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है पर गाँव में रहना बहुत बोरिंग है फिर क्या था गाँव पहले फिल्मों से गायब हुआ फिर गानों से धीरे धीरे साहित्य से भी दूर हो गया.समाचार मीडिया में वैसे भी गाँव सिर्फ अपराध की ख़बरों तक सीमित और इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है.पंजाब हरित क्रांति से फायदा उठाने वाले राज्यों में सबसे आगे है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुत से मजदूर अपने खेतों को छोड़कर पंजाब में दूसरे के खेतों में मजदूरी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी खेती से वो सम्मान नहीं मिलता जो परदेश में नौकरी करने के झूठे  दंभ में मिलता है समस्या की जड़ यही है.  गाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है . सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया है| लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों ने| ग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है| जो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैं| इन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो पूर्णता
प्रशिक्षित  नहीं है| ज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है.वैश्वीकरण का रोना छोड़कर हमें उससे मिले अवसरों का फायदा उठाना था जिसमे हम असफल रहे हमारे खेत और गाँव के उत्पाद अपनी ब्रांडिंग करने में असफल रहे.खेती में नवचारिता वही किसान कर पाए जिनकी जोतें बड़ी थीं और आय के अन्य स्रोत थे ऐसे लोग आज भी सफल हैं और अक्सर मीडिया की प्रेरक कहानियों का हिस्सा बनते हैं किन्तु  ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है.सहकारी आंदोलन की मिसाल लिज्जत पापड और अमूल दूध जैसे कुछ गिने चुने प्रयोगों को छोड़कर ऐसी सफलता कहानियां दुहराई नहीं जा सकीं.जिसका परिणाम ये हुआ कि गाँवों को शहर लुभाने लग गए और गाँव शहर बनने चल पड़े गाँव शहरों की संस्कृति को अपना नहीं पाए पर अपनी मौलिकता को भी नहीं बचा पाए जिसका परिणाम ये हुआ कि अपनी चिप्स और सिरका दोयम दर्जे के लगने लग गए पर यही ब्रांडेड चीजें अच्छी पैकिंग में हमें लुभाने लग गयीं हम अपनी सिवईं को भूल कर नूडल्स को दिल दे बैठे आखिर इनके
विज्ञापन टीवी से लेकर रेडियो तक हर जगह हैं पर अपना चियुड़ा,गट्टा किसी और देश का लगता है .सारी दुनिया की निगाह आज भारत पर इसलिए है क्योंकि हमारे पास दुनिया का एक बड़ा बाजार है पर उस बाजार में हमारी अपनी बनाई चीजों के लिए कोई जगह नहीं है.गाँव के ऐसे उत्पाद और कुटीर उद्योग गाँव के आर्थिक स्वावलंबन का सहारा बन सकते थे जिनसे हमारी शहरों और शहरी चीजों पर निर्भरता कम होती पर ऐसा हुआ नहीं.सरकार के ग्रामीण विकास के मॉडल इस समस्या को समझने में असमर्थ रहे कि चुनौती कितनी बड़ी .ब्रांडिंग के इस युग में भारत के गाँव और उनके उत्पादों को जब तक ब्रांडिंग का सहारा नहीं मिलेगा हम अपनी विरासत को यूँ ही नष्ट होते देखते रहेंगे .
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 19/12/2019 को प्रकाशित 

Thursday, December 12, 2019

इंटरनेट पर निजता की सुरक्षा

अब सोशल मीडिया इतना तेज़ और जन-सामान्य का संचार माध्यम बन गया कि इसने हर उस व्यक्ति को जिसके पास स्मार्ट फोन है और सोशल मीडिया पर उसकी एक बड़ी फैन फोलोविंग  वह एक चलता फिरता मीडिया हाउस बन गया  है .और यहीं से शुरू हुआ इंसान के डाटा बन जाने का खेल . इस खेल में इंटरनेट की कई कम्पनियां भी शामिल हैं जब सोशल मीडिया को लोगों के आधार अकाउंट से जोड़ने का मामला तमिलनाडु हाईकोर्ट पहुंचा तो उसी से जुड़े मामलों को फेसबुक कंपनी ने मद्रासबॉम्बे और मध्य प्रदेश हाई कोर्टों से सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करने की मांग की .सुप्रीम कोर्ट में तमिलनाडु सरकार की तरफ से दलील देते हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने पहले कहा था कि “सोशल मीडिया यूज़र्स की प्रोफाइल को आधार कार्ड से जोड़ना फ़र्ज़ी खबरों पर लगाम लगाने के लिए ज़रूरी है।” उनके हिसाब से इससे डेफमेट्री आर्टिकल्सअश्लील और एंटी-नेशनल कंटेंट पर भी लगाम लगेगी।इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 24 सितंबर को केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह ऑनलाइन निजता और राज्य की संप्रभुता के हितों को संतुलित करके सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के बारे में एक हलफनामा दायर करे. जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा था कि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अदालतों के लिए नहीं है कि वे सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करें। नीति केवल सरकार द्वारा तय की जा सकती है। एक बार सरकार नीति बनाती है तो कोर्ट नीति की वैधता पर निर्णय ले सकता है . हालाँकि अभी इस मुद्दे पर सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया है पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार और निजता के अधिकार के समर्थक इस कदम का विरोध कर रहे हैं .फेसबुक और व्हाट्स एप जैसी कम्पनियां इस तरह की सोच को नागरिकों के निजता के अधिकार के खिलाफ बता रही हैं . फेसबुक का कहना है कि वो अपने यूज़र्स के आधार कार्ड नंबर को किसी थर्ड पार्टी के साथ शेयर नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करना उसकी प्राइवेसी पॉलिसी के खिलाफ होगा।इस समस्या एक सबसे बड़ा पहलु है इसका व्यवसायिक पक्ष इंटरनेट की बड़ी कम्पनियां .सोशल मीडिया पर आने से जिस तथ्य को हम नजरंदाज करते हैं वह है हमारी निजता का मुद्दा और हमारे दी जाने वाली जानकारी.जब भी हम किसी सोशल मीडिया से जुड़ते हैं हम अपना नाम पता फोन नम्बर ई मेल उस कम्पनी को दे देते है.असल समस्या यहीं से शुरू होती है . 
इस तरह सोशल मीडिया पर आने वाले लोगों का डाटा कलेक्ट  कर लिया जाता है .उधर इंटरनेट के फैलाव  के साथ आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो उठें .लोगों के बारे में सम्पूर्ण जानकारियां को एकत्र करके बेचा जाना एक व्यवसाय बन चुका है और  इनकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए लोग तैयार बैठे हैं .कई बार एक गलती  किसी कंपनी की उस लोकप्रियता  पर भारी पड़ जाती है जो उसने एक लंबे समय में अर्जित की होती है. टेकक्रंच  की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई माह में लाखों मशहूर और प्रभावशाली व्यक्तियों का पर्सनल डेटा इन्स्ताग्राम  के जरिए लीक हो गया है. इस डेटाबेस में 4.9 करोड़ हाई-प्रोफाइल लोगों के व्यक्तिगत रिकॉर्ड  हैंजिनमें जाने-माने फूड ब्लॉगरऔर सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोग शामिल थे.रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जिन लोगों का डेटा लीक हुआ है उसमें उनके फॉलोवर्स की संख्याबायोपब्लिक डेटाप्रोफाइल पिक्चरलोकशन और पर्सनल कॉन्टैक्ट भी शामिल थे.तथ्य यह भी है कि जैसे ही ऐसा करने वाली फर्म के बारे में रिपोर्ट छपी , उसने तुरंत अपने डेटाबेस को ऑफलाइन कर लिया. ताजा मामला ईज़राइली टेक्नोलॉजी से व्हाट्सऐप में सेंध लगाकर पत्रकारोंवकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जासूसी के मामले में अनेक खुलासे हुए हैं. जो यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि इंटरनेट की इस दुनिया में अब निजी कुछ नहीं रह गया है . व्हाट्सऐप ने अमरीका के कैलिफ़ोर्निया में इजरायली कंपनी एनएसओ और उसकी सहयोगी कंपनी Q साइबर टेक्नोलॉजीज़ लिमिटेड के ख़िलाफ़ मुकदमा दायर किया है.
 देखने वाली  बात यह है कि व्हाट्सऐप के साथ फ़ेसबुक भी इस मुकदमे में पक्षकार है. फ़ेसबुक के पास व्हाट्सऐप का मालिकाना  है लेकिन इस मुक़दमे में फ़ेसबुक को व्हाट्सऐप का सर्विस प्रोवाइडर बताया गया है जो व्हाट्सऐप को आधारभूत ढांचा  और सुरक्षा कवच प्रदान करता है.पिछले साल ही फ़ेसबुक ने यह स्वीकारा था कि उनके ग्रुप द्वारा व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम के डाटा को मिला कर के  उसका व्यवसायिक इस्तेमाल किया जा रहा है. फ़ेसबुक ने यह भी स्वीकार किया था कि उसके प्लेटफ़ॉर्म में अनेक ऐप के माध्यम से डाटा माइनिंग और डाटा का कारोबार होता है.  व्हाट्सऐप अपने सिस्टम में की गई कॉलवीडियो कॉलचैटग्रुप चैटइमेजवीडियोवॉइस मैसेज और फ़ाइल ट्रांसफ़र को इंक्रिप्टेड बताते हुएअपने प्लेटफ़ॉर्म को हमेशा से सुरक्षित बताता रहा है पर इस खुलासे के बाद यह भ्रम भी टूट गया कि वहाट्स अप अपने उपभोक्ताओं की निजता की सुरक्षा करता है और उनके डाटा का गलत इस्तेमाल नहीं हो सकता .इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय और दुनिया भर की सरकारों में अपनी आलोचनाओं को लेकर दिखाई जाने वाली अतिशय संवेदनशील रवैया  है .कम्पनियां अनाधिकृत डाटा के व्यापार में शामिल हैं भले ही वे इसको न माने पर वे अपना डाटा देश की सरकार के साथ नहीं शेयर करना चाहती वहीं सरकार इस तरह के नियम बना कर अपनी आलोचनाओं को कुंद कर सकती है .फिलहाल देश इन्तजार कर रहा है की सोशल मीडिया पर आने वाला वक्त अभिवक्ति की स्वंत्रता और लोगों की निजता के बीच कैसे संतुलन बनाएगा और व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक क्या लोगों को इंटरनेट पर वो आजादी का एहसास करा पायेगा जिसके लिए लोग इंटरनेट पर आते हैं |
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 12/12/2019 को प्रकाशित 

Monday, December 9, 2019

जलवायु परिवर्तन को लेना होगा गंभीरता

आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ ही कूड़े की समस्या मानव सभ्यता के साथ आयी |जब तक यह प्रव्रत्ति प्रकृति सापेक्ष थी परेशानी की कोई बात नहीं रही पर इंसान जैसे जैसे प्रकृति को चुनौती देता गया कूड़ा प्रबंधन एक गंभीर समस्या में तब्दील होता गया क्योंकि मानव ऐसा कूड़ा छोड़ रहा था जो प्रकृतिक तरीके से समाप्त  नहीं होता या जिसके क्षय में पर्याप्त समय लगता है और उसी बीच कई गुना और कूड़ा इकट्ठा हो जाता है जो इस प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है जिससे कई तरह के प्रदुषण का जन्म होता है और साफ़ सफाई की समस्या उत्पन्न होती है |देश की हवा लगातार रोगी होती जा रही है |पेट्रोल डीजल और अन्य कार्बन जनित उत्पाद जिसमें कोयला भी शामिल है |तीसरी दुनिया के देश जिसमें भारत भी शामिल है प्रदूषण के मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ रहे हैं | पेट्रोल डीजल और कोयला ऊर्जा के मुख्य  श्रोत हैं अगर देश के विकास को गति देनी है तो आधारभूत अवस्थापना में निवेश करना ही पड़ेगा और इसमें बड़े पैमाने पर निर्माण भी शामिल है निर्माण के लिए ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पेट्रोल डीजल और कोयला  आसान विकल्प  पड़ता है दूसरी और निर्माण कार्य के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटान और पक्के निर्माण भी किये जाते हैं जिससे पेट्रोल डीजल और कोयला  के जलने से निकला धुंवा वातावरण को प्रदूषित करता है | ऊर्जा के अन्य गैर परम्परा गत विकल्पों में सौर उर्जा और परमाणु ऊर्जा महंगी है और इनके इस्तेमाल में भारत  काफी पीछे है |पर्यवारण की समस्या देश में भ्रष्टाचार की तरह हो गयी है जानते सभी है पर कोई ठोस कदम न उठाये जाने से सब इसे अपनी नियति मान चुके है |हर साल स्मोग़ की समस्या से दिल्ली और उसके आस पास इलाके जूझते  हैं|सरकार बयान जारी करती है पर जमीनी हकीकत नहीं बदलती है |  टाटा सेंटर फॉर डेवलपमेंट के सहयोग से क्लाइमेट इम्पैक्ट लैब शिकागो की रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्ष 2100 तकजलवायु परिवर्तन के कारण भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन अधिक लोग मर सकते हैं | इसका असर सबसे अधिक छह राज्य में होगा | इस रिपोर्ट के अनुसार,  उत्तर प्रदेश (402,280), बिहार (136,372), राजस्थान (121,809), आंध्र प्रदेश (116,920), मध्य प्रदेश (108,370), और महाराष्ट्र (106,749) देश में जलवायु परिवर्तन से होने वाली कुल मौतों का 64प्रतिशत से ज्यादा का योगदान देंगे  | पर्यावरण एक चक्रीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई कड़ी टूटती हैतो पूरा चक्र प्रभावित होता है। पर विकास और प्रगति के फेर में हमने इस चक्र की कई कड़ियों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। पूंजीवाद के इस युग में कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलतीइस सामान्य ज्ञान को हम प्रकृति के साथ जोड़कर न देख सकेजिसका नतीजा धरती पर अत्यधिक बोझ के रूप में सामने है| 
दुर्भाग्य से भारत में विकास की जो अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि हमारी विकास की अवधारणा  पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा की ही नकल है पर स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी हमारी विकास के प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |भारत में आंकड़ा पत्रकारिता की नींव रखने वाली संस्था इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 23.4 प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई है साल 2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा |अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 प्रतिशत की  वृद्धि हुई है साल 2030 तक वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी |इस रिपोर्ट के अनुसार देश के सारे राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश में से सोलह का औसत तापमान पंजाब से ज्यादा होगा |अभी गर्मियों में सारे राज्यों में पंजाब का औसत तापमान सबसे ज्यादा रहता है |इसका मतलब भारत में आने वाले समय में अत्यधिक गर्मी पड़ने की सम्भावना  है | देश की राजधानी दिल्ली में लगभग बाईस  गुना अधिक गर्मी पड़ने की सम्भावना  है | राष्ट्रीय स्तर पर, 35 ° C से ऊपर के गर्म दिनों में आठ गुना वृद्धि का अनुमान है | सीधे तौर पर यह कहा जा सकता है कि रिपोर्ट मृत्यु के सीधे  कारण के रूप में जलवायु परिवर्तन को देखती है |कि भारत जलवायु परिवर्तन के तूफ़ान के  केंद्र में है | यह आंकड़े  तापमान और मृत्यु दर के वैश्विक आंकड़ों पर आधारित हैजो वैश्विक आबादी के सत्तावन प्रतिशत हिस्से  को कवर करती  है |
देश में जैसे-जैसे हम गर्म दिनों की ओर बढ़ेंगेमृत्यु दर में तेजी से वृद्धि होगी | इस रिपोर्ट के अनुसार भारत का अनुमानित ऊर्जा उपयोग साल  2040 तक दोगुने से अधिक होने की उम्मीद हैजिसमें कोयले की बहुत अधिक भूमिका  होगी | जबकि देश को कोयले से दूर और दुनिया भर में कम कीमतों पर उपलब्ध प्राकृतिक गैस की ओर बढ़ना ही होगा | तथ्य यह भी है कि बढ़ते तापमान और मृत्यु दर के लगभग-सर्वनाशपूर्ण परिदृश्य की खुली भविष्य वाणी कर रहे हैलेकिन हम भविष्य में इसके लिए उतनी मुस्तैदी से तैयार न हो रहे हैं  |  एक हीट-वेव या प्रदूषण की समस्या को केवल एक आपदा या सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में देखा जा रहा हैबल्कि होना यह चाहिए कि इसे समाज के अलग-अलग  क्षेत्रों  जैसे श्रमपेयजलकृषि और बिजली के विभागों के लिए भी  चिंता का विषय होना चाहिए | इससे जलवायु परिवर्तन की समस्या सबकी समस्या बनेगी  जिससे अलग अलग स्तरों पर इससे निपटने के लिए गहन विचार होगा |
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 09/12/2019  को प्रकाशित 

Monday, December 2, 2019

आधी आबादी की आजादी अभी 'आधी'

विकास जब अपने संक्रमण काल में होता तब सामजिक समस्याएं ज्यादा गंभीर होती हैं,कुछ ऐसी परिस्थितियों से भारतीय समाज भी गुजर रहा है |आंकड़े बताते हैं कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं|उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी रोजगार के अवसरों को बढ़ा रहे हैं|महिलायें कार्यक्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को तेजी से तोड़ रही हैं|आमतौर पर ऐसी तस्वीर किसी भी समाज के लिए आदर्श मानी जायेगी जहाँ स्त्रियाँ तरक्की कर रही हों पर भारतीय परिस्थितयों में ये स्थिति महिलाओं के लिए स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानी पैदा कर रही है|वैश्वीकरण की बयार,शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता ने पूरे देश को प्रभावित किया है|धीरे धीरे ही सही अब इस धारणा को बल मिल रहा है कि कामकाजी महिला घर और भविष्य के लिए बेहतर होगी पर हमारा पितृ सत्तामक सामजिक ढांचा उन्हें घर परिवार के साथ साथ  रोजगार सम्हालने की भी अपेक्षा करता है जिसका नतीजा महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं  के रूप में सामने आ रहा है|स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड द्वारा देश के चार महानगरों दिल्लीकोलकाताबंगलुरु  और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच किये गए  इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैंजिसकी  वजह से महिलाओं को थकानकमजोरीमांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा  है|रिपोर्ट के अनुसार,चालीस  से साठ साल के बीच की की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों के होने की आशंका बढ़ी हैमहतवपूर्ण तथ्य यह भी है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैंअर्थव्यवस्था में तेजी आने से रोजगार के अवसर बढे जिसके कारण गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा जिसका नतीजा बढ़ते एकल परिवारों के रूप में हमारे सामने आ रहा है|सामजिक रूप से बढ़ते एकल परिवार कोई समस्या की बात नहीं हैं पर संयुक्त परिवारों की तुलना में एकल परिवार में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा है जिससे महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर दोनों को सम्हालने के लिए पुरुषों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है जिससे तनाव बढ़ता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जिससे अन्य बीमरियों के होने की आशंका बढ़ जाती है|अब वो दौर बीत चुका है जब ये माना जाता था कि महिलायें सिर्फ घर का कामकाज देखेंगी अब महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर जीवन की हर चुनौतियों का सामना कर रही हैं,उनके काम का दायरा बढ़ा है पर परिवार से जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए,वह नहीं मिल रहा हैजबकि पुरुषों का कार्यक्षेत्र सिर्फ बाहरी कामकाज तक सीमित है|भारत के सम्बन्ध में यह समस्या इसलिए महत्वपूर्ण है जहाँ अभी तक महिलायें घर की चाहरदीवारी में कैद रही हैं पर अब उनको स्व्वीकार्यता  तो मिल रही है पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है|
ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारतचीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं|भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद हैजहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैंरिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखनेआराम करनेखानेऔर सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं| मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर रिपोर्ट के अनुसार नौकरी और घर दोनों सम्हालने वाली अधिकतर महिलायें डायबिटीज और थायरॉयड के अलावा मानसिक अवसादकमर दर्दमोटापे और दिल की बीमारियों से पीड़ित हैं|अधिकतर भारतीय घरों में ये उम्मीद की जाती है कि कामकाजी महिलायें,अपने काम से लौटकर घर के सामान्य काम भी निपटाएं|ऐसे में महिलाओं के ऊपर काम का दोहरा दबाव पड़ता है जबकि पुरुष घर आकर काम की थकान मिटाते हैं वहीं महिलायें फिर काम में लग जाती हैं बस फर्क इतना होता है कि बाहर के काम का आर्थिक भुगतान होता है जबकि घर के काम काज को परम्पराओं ,मर्यादाओं के तहत उसके जीवन का अंग मान लिया जाता है|उल्लेखनीय है कि इस समस्या के और भी कुछ अल्पज्ञात पहलू हैं| घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं|
बड़े शहरों में जागरूक माता पिता अपनी लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ऐसे में वो लड़कियां शादी से पहले ही कामकाजी हो जाती हैं और घर के दायित्वों में सक्रीय रूप से योगदान नहीं देती पर शादी के बाद स्थिति एकदम से बदल जाती हैं|यहीं पुरुष अगर घर के सामान्य कामों को छोड़कर अपनी पढ़ाई या करियर पर ध्यान दें तो यह आदर्श स्थिति मानी जायेगी क्यूंकि समाज उनसे यही आशा करता है पर महिलाओं के मामले में समाज की सोच दूसरी है ऐसे में भी अगर कोई लडकी पढ़ लिख कर कुछ बन जाती है तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर के कामों में ध्यान देगी और तब समस्याएं शुरू होती हैं|समाज का ढांचा तो बदल रहा है पर मानसिकता नहीं और यही समस्या की जड़ है|मानसिकता में बदलाव समाज के ढांचे में बदलाव की अपेक्षा काफी  धीमा होता है|इसकी कीमत कामकाजी महिलाओं को चुकानी पड़ रही है|कामकाजी महिलाओं को स्वीकार किया जा रहा है पर शर्तों के साथ |इन खतरनाक बीमरियों पर अंकुश लगाने के लिए यह जरुरी है कि परिवार अपनी मानसिकता में बदलाव लायें और पुरुष घर के काम काज को लैंगिक नजरिये से देखना बंद करें|छोटे बच्चे जब घर के सामान्य कामकाज को अपने पिताओं को करते देखेंगे तो उनके अन्दर काम काज के प्रति लैंगिक विभेद नहीं पैदा होगा ऐसे में जरुरी है छोटे बच्चों का समाजीकरण घरेलू काम में लैंगिक बंटवारे के हिसाब से न हो यानि खाना माता जी ही पकायेंगी और पिता जी ही सब्जी लायेंगेयदि  ऐसा होगा तो आज के बच्चे कल के  एक बेहतर नागरिक नागरिक अभिभावक बनेगे|बीमारियों का इलाज तो दवाओं से हो सकता है पर स्वस्थ मानसिकता का निर्माण जागरूकता और सकारात्मक सोच से ही होगा
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 02/12/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, November 26, 2019

डिजीटल वर्ल्ड का रुख करती आज की पीढी

इसमें कोई शक नहीं कि मानव सभ्यता के इतिहास को बदलने में सबसे बड़ा योगदान आग और पहिये के आविष्कार ने दिया। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट की अवधारणा ने इस सभ्यता का नक्शा हमेशा के लिए बदल दिया। यह समय का एक चक्र पूरा हो जाने जैसा है। इंसान ने संचार के लिए सबसे पहले चित्रों का सहारा लिया था, जिनके साक्ष्य आदिकालीन गुफाओं में देखे जा सकते हैं। फिर भाषा और लिपि का विकास हुआ और सभ्यता लगातार आगे बढ़ती रही। संवाद के लिए भाषा पर ज्यादा निर्भरता रही। पर इंटरनेट के आगमन और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते चलन ने संचार के उस युग को दुबारा जीवित कर दिया जो सभ्यता की शुरु आत में हमारा साथी था। संवाद के लिए तस्वीरें और स्माइली का प्रयोग अब ज्यादा बढ़ रहा है। स्माइली ऐसे चिह्न हैं जिनसे भाव प्रेषित किए जाते हैं। मोबाइल इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली कुल आबादी का पचहत्तर प्रतिशत हिस्सा बीस से उन्तीस वर्ष के युवा वर्ग से आता है। इसमें खास बात यह है कि यह युवा वर्ग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सबसे ज्यादा सक्रिय है। जल्दी ही वह वक्त इतिहास हो जाने वाला है जब आपको कोई एसएमएस मिलेगा कि क्या हो रहा है और आप लिखकर जवाब देंगे। अब समय दृश्य संचार का है। आप तुरंत एक तस्वीर खींचेंगे या वीडियो बनाएंगे और पूछने वाले को भेज देंगे या एक स्माइली भेज देंगे। यानी आपको कुछ कहने या लिखने की जरूरत नहीं, कहने का काम अब तस्वीरें करेंगी। फोटो या छायाचित्र बहुत पहले से संचार का माध्यम रहे हैं, पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट के साथ ने इन्हें इंस्टेंट कम्युनिकेशन मोड (त्वरित संचार माध्यम) में बदल दिया है। अब महज शब्द नहीं, भाव और परिवेश भी बोल रहे हैं। वह भी तस्वीरों और स्माइली के सहारे। इस संचार को समझने के लिए न तो किसी भाषा विशेष को जानने की अनिवार्यता है और न ही वर्तनी और व्याकरण की बंदिशें। तस्वीरें पूरी दुनिया की एक सार्वभौमिक भाषा बनकर उभर रही हैं। 
दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला व्यक्ति तस्वीरों और वीडियो के माध्यम से अपनी बात दूसरों तक पहुंचा पा रहा है। एसी नील्सन के नियंतण्र मीडिया खपत सूचकांक  से पता चलता है कि एशिया (जापान को छोड़कर) और ब्रिक देशों में इंटरनेट मोबाइल फोन पर टीवी व वीडियो देखने की आदत पश्चिमी देशों व यूरोप के मुकाबले तेजी से बढ़ रही है। मोबाइल पर लिखित एसएमएस संदेशों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वायरलेस उद्योग की अंतरराष्ट्रीय संस्था सीटीआईए की रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 में 2.19 ट्रिलियन एसएमएस संदेशों का आदान-प्रदान पूरी दुनिया में हुआ, जो 2011 की तुलना में भेजे गए संदेशों की संख्या से पांच प्रतिशत कम रहा। वहीं मल्टीमीडिया मेसेज (एमएमएस) जिसमें फोटो और वीडियो शामिल हैं, की संख्या साल 2012 में 41 प्रतिशत बढ़कर 74.5 बिलियन हो गई। एक साधारण तस्वीर से संचार, शब्दों और चिह्नों के मुकाबले कहीं आसान है। उन्नत होती तकनीक और बढ़ते स्मार्टफोन के प्रचलन ने फोटोग्राफी को अतीत की स्मृतियों को सहेजने की कला से आगे बढ़ाकर एक त्वरित संचार माध्यम में तब्दील कर दिया है। फोन पर इंटरनेट और नएनए एप्स लगातार संचार के तरीकों को बदल रहे हैं। स्नैप चैट एक ऐसा ही मोबाइल एप्लीकेशन है जो प्रयोगकर्ता को वीडियो और फोटो भेजने की सुविधा प्रदान करता है। इसमें फोटो-वीडियो देखे जाने के बाद अपने आप हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। स्नैप चैट के प्रयोगकर्ता प्रतिदिन 200 मिलियन चित्रों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। फेसबुक पर लोग प्रतिदिन 300 मिलियन चित्रों का आदान-प्रदान कर रहे हैं और साल भर में यह आंकड़ा 100 बिलियन का है। चित्रों का आदान-प्रदान करने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या स्मार्टफोन प्रयोगकर्ताओं की है जो स्मार्टफोन द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करते हैं और यह चीज संचार के क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला रही है। तथ्य यह भी है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल में संचार के पारंपरिक तरीके, जिसका आधार भाषा हुआ करती थी, वह कुछ निश्चित चिह्नों/प्रतीकों में बदल रही है। इसे हम इमोजीस या फिर इमोटिकॉन के रूप में जानते हैं जो चेहरे की अभिव्यक्ति जाहिर करते हैं। 1982 में अमेरिकी कंप्यूटर विज्ञानी स्कॉट फॉलमैन ने इसका आविष्कार किया था। स्कॉट फॉलमैन ने जब इसका आविष्कार किया था, तब उन्होंने नहीं सोचा था कि एक दिन ये चित्र प्रतीक मानव संचार में इतनी बड़ी भूमिका निभाएंगे। व्हाट्सएप के अलावा सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक में भी इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल संचार के लिए हो रहा है। सिर्फ एप्पल के आईफोन में ही दो करोड़ बार इमोजी डाउनलोड किए गए हैं। बहुत से स्मार्टफोनों में सात सौ बीस से ज्यादा स्माइली आइकन मौजूद हैं। स्मार्टफोन या फिर चैट एप में पारंपरिक स्माइली वाले चेहरे से लेकर दैत्य रूपी या फिर चुलबुले चेहरे वाले आइकन मौजूद हैं। मोबाइल अब एक आवश्यक आवश्यकता बन कर हमेशा हमारे साथ रहता है। देश में जहां 116.1 करोड़ मोबाइल यूजर्स मौजूद हैं. वहीं लैंडलाइन उपभोक्ताओं की संख्या 2.17 करोड़ है. देश में टेलीफोन घनत्व की बात करें तो प्रति 100 की आबादी पर 90.11 टेलीफोन यूजर्स हैं. इनमें 88.46 मोबाइल और 1.65 लैंड लाइन यूजर्स हैं. सबसे ज्यादा टेलीफोन वाला राज्य दिल्ली है. जहां घनत्व 174.8 है. हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी उन्नति के रथ पर सवार तस्वीरें आने वाले वक्त में मानव संचार की दुनिया बदल देंगी, पर तस्वीर पूरी रंगीन हो ऐसा भी नहीं है। छायाचित्र संचार के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तकनीक है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में डिजीटल डिवाइड बढ़ रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दस वर्ष में ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 0.4 प्रतिशत परिवारों को ही घर में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत की ग्रामीण जनसंख्या का दो प्रतिशत ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। यह आंकड़ा इस हिसाब से बहुत कम है क्योंकि इस वक्त ग्रामीण इलाकों के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से अट्ठारह प्रतिशत को इसके इस्तेमाल के लिए दस किलोमीटर से ज्यादा का सफर करना पड़ता है। तकनीक के इस डिजीटल युग में हम अब भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत समस्याओं के उन्मूलन में बेहतर प्रदशर्न नहीं कर पा रहे हैं। लिहाजा, तस्वीर उतनी चमकीली भी नहीं है। इसके अतिरिक्त तस्वीरों और स्माइली पर बढ़ती निर्भरता संचार के लिए दुनिया भर की भाषाओं के लिए खतरा भी हो सकती है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में  26/11/2019 को प्रकाशित लेख 

Monday, November 25, 2019

सोशल मीडिया वाले "साहित्यकारों" की पीढी बढ़ रही

नवभारत टाईम्स लखनऊ में 25/11/2019 को प्रकाशित 

पर्यटन में नवाचार से अछूता रहा लद्दाख

पिछले दिनों लेह लद्दाख के प्रवास पर था मौका पहले लद्दाख लिटरेचर फेस्टिवल का हिस्सा बनना |यह लिटरेचर फेस्टिवल लद्दाख के सम्भागीय आयुक्त सौगत बिस्वास के दिमाग की उपज थी जिससे देश के अन्य भागों के निवासी लद्दाख को जम्मू कश्मीर के चश्मे से देखने की बजाय लद्दाख के स्वतंत्र नजरिये से देखे |इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने ही मैं एक ऐसे ऐतिहासिक पल का गवाह बना |जिससे लद्दाख की तकदीर और तस्वीर हमेशा के लिए बदल जाने वाली है,जब मैं लद्दाख पहुंचा तो वह जम्मू कश्मीर राज्य का एक हिस्सा भर था पर जब मेरे लौटने से पहले लद्दाख देश का एक केंद्र शासित राज्य बन गया |सच कहा जाए तो इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने ही मैं लद्दाख की सम्रर्ध साहितिय्क सांस्क्रतिक परम्परा की विरासत को समझ पाया |बात चाहे  पर्यटन की हो या जम्मू कश्मीर की समस्याओं या साहित्य की  मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर घाटी और श्रीनगर के आस पास के इलाके ही रहे हैं| लेह लद्दाख लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र 173266.37 वर्ग किमी के कुल क्षेत्रफल के साथ भारत में सबसे बड़ा लोकसभा क्षेत्र है|लेह की चौड़ी सड़कों और संकरी गलियों में एक हफ्ते घूमने के बाद मुझे कोई भी स्थानीय निवासी ऐसा नहीं मिला जो सरकार के इस फैसले से नाराज हो|कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों के मुकाबले लेह लद्दाख के लोगों का जीवन ज्यादा मुश्किल भरा है पर वो लोग अपनी मांगों को मनवाने के लिए न तो हिंसक हुए और न ही उग्रवाद का सहारा लिया |लद्दाख वासियों के लिए केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) की मांग एक पुराने नारे की शक़्ल में रही है| कश्मीरी संस्कृति से लद्दाख के लोगों का कोई सीधा रिश्ता नहीं रहा,जम्मू कश्मीर राज्य की साठ फीसदी जमीन लद्दाख में है पर प्रशासन कश्मीर केन्द्रित ही रहा |
दसवीं से उन्नीसवीं सदी तक लद्दाख एक स्वतंत्र राज्य था|जहाँ  लगभग बत्तीस  राजाओं का इतिहास रहा है. लेकिन 1834 में डोगरा सेनापति ज़ोरावर सिंह ने लद्दाख पर कब्जा कर लिया  और यह जम्मू-कश्मीर के अधीन चला गया.लेकिन लद्दाख  अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर हमेशा मुखर रहा | केंद्र शासित प्रदेश की मांग दशकों पुरानी है| साल 1989 में इस मांग को कुछ सफलता मिलीजब यहां बौद्धों के धार्मिक संगठन लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) के नेत्र्तव  में एक बड़ा आंदोलन हुआ|1993 में केंद्र और प्रदेश सरकार लद्दाख को स्वायत्त हिल काउंसिल का दर्ज़ा देने को तैयार हो गईं|इस काउंसिल के पास ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर आर्थिक विकाससेहतशिक्षाज़मीन के उपयोगकर  और स्थानीय शासन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार है जबकि कानून व्यवस्था ,न्याय व्यवस्थासंचार और उच्च शिक्षा से जुड़े फ़ैसले जम्मू-कश्मीर सरकार के लिए ही सुरक्षित रखे गए|किसी भी राज्य के मानवसंसाधन की गुणवत्ता का आंकलन वहां स्थित शैक्षिक संस्थानों की उपलब्धता से लगाया जा सकता है |आजादी के सत्तर सालों में लेह लद्दाख में एक भी विश्वविद्यालय नहीं बना था | इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में पहले विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटी ऑफ लद्दाख’ की आधारशिला रखी। जिससे लेहकरगिलनुब्राजंस्करद्रास और खलतसी के डिग्री कॉलेज संबद्ध हैं।जम्मू क्षेत्र में एक आईआईटी और एक आईआईएमसी के अलावा कुल चार विश्वविद्यालय हैंवहीं कश्मीर घाटी में तीन विश्वविद्यालय और एक राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) है।
लद्दाख में दो जिले हैं लेह और कारगिल और यह इलाका सामरिक द्रष्टि से भी बहुत सम्वेदनशील है क्योंकि इसी इलाके में एक तरफ चीन है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान इसके बावजूद पिछले कुछ सालों में यहाँ पर्यटकों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है |लेकिन यहाँ साल के छ महीने जीवन आसान नहीं है ये छह महीनों के लिए लद्दाख दुनिया से कट जाता है और कुछ जगहों पर लोग माइनस 32 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी रहते हैं|लोगों के रोजगार का एकमात्र साधन पर्यटन ही है पर अपनी भौगौलिक विषमताओं के कारण पर्यटकों का बड़ा हिस्सा जम्मू कश्मीर तक ही सीमित रह जाता है | तथ्य यह भी है  कि लद्दाख के ठंडे पर्यावरण में भारत के किसी भी जगह से ज्यादा धूप मिलती है. लद्दाख में आसमान साफ रहता हैजिससे वहां सौर ऊर्जा के लिए अनुकूल वातावरण है. वहां मानसून के दौरान बहुत कम बारिश होती है. जाड़े में बर्फ पड़ती हैलेकिन अधिकांश समय वहां बादल नहीं होते हैं. इसलिए वहां देश के किसी दूसरे इलाके के मुकाबले सूरज की ऊर्जा को बिजली में बदलने की क्षमता ज्यादा है. विशेषज्ञों का मानना है कि पश्चिमी राजस्थान के मुकाबले लद्दाख में सोलर सेल करीब दस प्रतिशत  ज्यादा बिजली पैदा कर सकता है. जबकि लद्दाख में इस समय नेशनल हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) की दो पनबिजली (पानी से बिजली ) परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें चुटक परियोजना 44 मेगावाट क्षमता की है जबकि निमो बाजगो परियोजना में 45 मेगावाट क्षमता की इंस्टाल्ड कैपेसिटी है। वहीं जम्मू-कश्मीर स्टेट पावर डेवलपमेंट कारपोरेशन (जेकेएसपीडीसी) की नौ पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं। इनसे 14.56 मेगावाट की बिजली बनाने की क्षमता है। एनएचपीसी और जेकेएसपीडीसी दोनों की परियोजनाओं से कुल 103.56 मेगावाट की बिजली बनाई जा सकती है। इसकी तुलना में पूरे लद्दाख क्षेत्र (लेह और कारगिल) में साल भर में बिजली की औसत मांग 50 मेगावाट से कम है।सौर और पन बिजली के क्षेत्र में जो सम्भावनाएं हैं उनका दोहन लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद ही होगा,जिससे रोजगार सृजित  होगा और वहां के निवासियों का जीवन स्तर बेहतर होगा |एकमात्र पर्यटन व्यवसाय होने के बावजूद पर्यटन में चल रहे नवाचार से लद्दाख का इलाका अछूता रहा है |होम स्टे की संख्या अभी बहुत कम है और होटल महंगे है |लद्दाख के वन्य जीवन के बारे में भी देश में लोगों को बहुत कम पता है |हेमिस राष्ट्रीय उद्यान लद्दाख क्षेत्र का सबसे ज्‍यादा ऊंचाई पर स्थित राष्ट्रीय उद्यान है। यह भारत में हिमालय के उत्तर में बना इकलौता राष्ट्रीय उद्यान है। हेमिस भारत में सबसे बड़ा अधिसूचित संरक्षित क्षेत्र और नंदा देवी बायोस्फ़ियर रिजर्व और आसपास के संरक्षित क्षेत्रों के बाद दूसरा सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है। हेमिस नेशनल पार्क में दो सौ  से ज्यादा स्नो लेपर्ड मौजूद हैं। इनके अलावा तिब्बतन भेड़िएलाल लोमड़ीयूरेशियन भूरे भालूहिमालयन चूहेमरमोथ और भी कई जीव-जंतु पाए जाते हैं। स्तनधारियों की 16 और पक्षियों की लगभग 73 प्रजातियों को यहां देखा जा सकता है।जिनमें से गोल्डेन ईगलहिमालयन ग्रिफॉन वल्चररॉबिन एसेंटरचूकरब्लैक विंग्ड स्नोफिंचहिमालयन स्नोकॉक आसानी से देखे जा सकते हैं।फिलहाल लद्दाख एक अजीब सी समस्या से जूझ रहा है वो है कुत्तों की बढ़ती संख्या और वे खाने की तलाश में कई लुप्त प्रायः छोटे जंगली जानवरों का शिकार कर लेते हैं |हालाँकि लेह प्रशासन कुत्तों की नसबंदी कर रहा है पर फिर भी यह एक बड़ी समस्या बने हुए हैं |
 लद्दाख में आईस हॉकी : लद्दाख क्षेत्र में आइस हॉकी की कई टीमें हैं, ज्यादातर आइस हॉकी खिलाड़ी लेह या लद्दाख क्षेत्र की हैंआइस हॉकी का मैदान (रिंक) फिलहाल खुले में है। लोगों को जोड़ने में यह खेल अहम भूमिका निभाता है, खासकर ठंड के दिनों में। बर्फबारी के चलते लेह आने वाली सड़कें बंद हो जाती हैं।
अनोखा स्नो लेपर्ड : ऊँची-ऊँची पहाड़ियों और बर्फ की सफेद चादर से ढका हुआ लद्दाख यहाँ की खूबसूरत वादियों में रहता है एक अद्भुत जानवर जिसे स्नो-लेपर्ड’ के नाम से जाना जाता है। इसे भूरे भूत’ का नाम भी दिया गया है इसका कारण यह है कि इसके पीले और गहरे रंग के फर होता है  जिस कारण ये लद्दाख के बर्फ में यूँ सम्मिलित हो जाता है कि पता ही नहीं चलता कि ये कब ऊपर के पहाड़ों से नीचे आता और चला जाता है।
लद्दाख के उत्सव :
हेमिस उत्सव: यह जून में मनाया जाता है। यह प्रत्येक वर्ष गुरु पद्यसंभवाजिनके प्रति लोगों का मानना है कि उन्होंने स्थानीय लोगों को बचाने के लिए दुष्टों से युद्ध किया थाकी याद में मनाया जाता है। इस उत्सव की सबसे खास बात मुखौटा नृत्य है जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं।
 लोसर: यह प्रति वर्ष बौद्ध वर्ष के ग्यारहवें महीने में मनाया जाता है। यह 15वीं सदी से मनाया जाता है। इसको मनाने के पीछे यही सोच होती है कि युद्ध से पूर्व इसे इसलिए मनाया जाता था क्योंकि न जाने कोई युद्ध में जीवित बचेगा भी या नहीं।

लद्दाख उत्सव: यह प्रत्येक वर्ष अगस्त में मनाया जाता है और इसका आयोजन पर्यटन विभाग की ओर से किया जाता है। इसके दौरान विभिन्न बौद्ध मठों में होने वाले धार्मिक उत्सवों का आनंद पर्यटक उठाते हैं।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 25/11/2019 को प्रकाशित 

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