Tuesday, January 29, 2019

इंटरनेट पर कम क्यों बोलता है रेडियो

स्मार्ट फोन ने देश में इंटरनेट प्रयोग के आयाम जरूर बदले हैं पर वहां भी वीडियो और तस्वीरों की ही अधिकता ही है । इसमें यू-ट्यूब और फेसबुक लाइव जैसे फीचर बहुत लोकप्रिय हुए हैं। जिसका नतीजा अक्सर  इंटरनेट को वीडियो का ही माध्यम समझ लिया जाता है और ध्वनि को नजरंदाज कर दियागया है। भारत में अगर आप अपने विचार अपनी आवाज के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना चाहते हैंतो आपको इंटरनेट पर खासी मेहनत करनी पड़ेगी। व्यवसाय के रूप में जहां इन्स्टाग्राम  वीडियो,फेसबुक वाच 
यू-ट्यूब के सैकड़ों वीडियो चैनल देश में काफी लोकप्रिय हैंवहीं आवाज  का माध्यम अभी भी जड़ें जमा नहीं पाया हैजबकि बाकी दुनिया में इंटरनेट पर ऑडियो का चलन जिसे पोडकास्ट कहा जाता है काफी तेजी से बढ़ रहा है।इंटरनेट पर ऑडियो फाइल को साझा  करना पॉडकास्ट के नाम से जानाजाता है। पॉडकास्ट दो शब्दों के मिलन  से  बना हैजिसमें पहला हैं प्लेयेबल ऑन डिमांड (पॉड) और दूसरा ब्रॉडकास्ट । नीमन लैब के एक शोध  के अनुसारवर्ष 2016 में अमेरिका में पॉडकास्ट (इंटरनेट पर ध्वनि के माध्यम से विचार या सूचना देना) के प्रयोगकर्ताओं यानी श्रोताओं की संख्या में काफी  तेजी से वृद्धि हुई  है। जिसके  वर्ष 2020 तक लगातार पच्चीस  प्रतिशत की दर से वृद्धि करने की उम्मीद है। इस वृद्धि दर से वर्ष 2020 तक पॉडकास्टिंग से होने वाली आमदनी पांच सौ मिलियन डॉलर के करीब पहुंच जाएगी। पॉडकास्टिंग की शुरुआत हालांकि एक छोटे माध्यम के रूप में हुई थीपर अब यह एक संपूर्ण डिजिटल उद्योग का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका की सबसे बड़ी पॉडकास्टिंग कंपनी एनपीआर की सालाना आमदनी लगभग दस मिलियन डॉलर के करीब है।
भारत में पॉडकास्टिंग के जड़ें न जमा पाने के कारण हैं ध्वनि के रूप में सिर्फ फिल्मी गाने सुनने की परंपरा  और श्रव्य की अन्य विधाओं से परिचित ही नहीं हो पाना रहा है ।देश में आवाज के माध्यम के रूप में रेडियो ने टीवी के आगमन से पहले अपनी जड़ें जमा ली थीं पर भारत में रेडियो सिर्फ म्यूजिकरेडियो का पर्याय बनकर रह गया और टोक रेडियो में बदल नहीं पाया है तथ्य यह भी है कि सांस्कृतिक रूप से एक आम भारतीय का सामाजीकरण  सिर्फ फ़िल्मी गाने और क्रिकेट कमेंट्री सुनते हुए होता है जिसकी परम्परा पारंपरिक रेडियो से शुरू होकर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन होते हुए इंटरनेट की दुनिया तक पहुँची है |
निजी ऍफ़ एम् प्रसारण के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि यह परिद्रश्य बदलेगा जैसे निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने से देश में समाचारों को परोसने का तरीका एकदम से बदल गया पर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन पर समाचारों की रोक के कारण एकबार फिर देश म्यूजिक रेडियो की राह पर निकल पड़ा ,जहाँ दिन रात संगीत परोसा जा रहा है और विचारों की कहीं कोई जगह नहीं है |जबकि पॉडकास्टिंग को मीडिया के श्रव्य विकल्प के रूप में देखने की आवश्यकता है। भारत जैसे देशों मेंजहां इंटरनेट की स्पीड काफी धीमी होती हैवीडियो के मुकाबले पॉडकास्टिंग ज्यादा कामयाब हो सकतीहै।उल्लेखनीय है कि इंटरनेट पर ध्वनि रूप में अपने विचार प्रसारित करने की कोई रोक नहीं है पर फिर भी ज्यादातर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन विभिन्न सोशल मीडिया प्लेट फॉर्म पर या तो गाने सुना रहे हैं या फिर मजाकिया वीडियो बनाकर अपना श्रोता आधार बढ़ा रहे हैं सरकार ने सिर्फ रेडियो समाचारों के प्रसारणों पर रोक लगाई है आप जो रेडियो पर नहीं कह पा रहे हैं तो उसके लिए  इंटरनेट   को जरिया बनाया जा सकता है पर यहाँ  एक खतरा है |इंटरनेट  पर कुछ कहने के लिए विचार होने चाहिए और निजी एफएम के  रेडियो जॉकी या तो विचार शून्यता  के  शिकार हैं या  वे यथास्थिति से संतुष्ट हैं |तर्क यह भी दिया जाता है कि निजी रेडियो संस्थान किसी भी मुद्दे पर अपने फेसबुक पेज से किसी वैचारिक विमर्श की इजाजत नहीं देते  हैं पोडकास्ट किसी भी विचार या विषय पर किया जा सकता है जो राजनीति से लेकर खेल और कारोबार से लेकर फैशन जैसे अनगिनत मुद्दों से जुड़ा हो सकता है|भारतजैसे भाषाई विविधता वाले देश में जहाँ निरक्षरता अभी भी मौजूद है पॉडकास्ट लोगों तक उनकी ही भाषा में संचार करने का एक सस्ता और आसान विकल्प हो सकता है |प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की मन की बात कार्यक्रम का पॉडकास्ट काफी लोकप्रिय है | पॉडकास्ट की सबसे बड़ी खूबी है इसकी ग्लोबल रीच यानि अगर आप कुछ ऐसा सुना रहे हैं जो लोग सुनने चाहते हैं तो किसी चैनल के लोकप्रिय होते देर नहीं लगेगी |
इस वक्त भारत में दो प्रमुख पॉडकास्ट सेवाएं नियमित रूप से प्रसारित की जा रही हैंजिनमें इंडसवॉक्स और ऑडियोमैटिक काफी लोकप्रिय हैंपर ये भारतीय भाषाओं में नहीं हैं। ऑडियोमैटिक ने अपनी शुरुआत के एक साल में एक लाख नियमित श्रोता जुटा लिए हैं। इंडसवॉक्स म्यूजिक स्ट्रीमिंग साइट सावन  पर उपलब्ध है। स्मार्टफोन की उपलब्धता के अनुपात में इनके श्रोता अभी काफी कम हैं। भारत के सन्दर्भ  में एक बात तय मानी जाती है कि पॉडकास्टिंग यहां विज्ञापन आधारित ही होगी। कुछ भी मनपसंद सुनने के लिए पैसे खर्च करने की परंपरा देश में फिलहाल  नहीं है। इन कंपनियों के लिए पॉडकास्टिंग एक ज्यादा अच्छा विकल्प हो सकती है। गूगल ने भारत में पॉडकास्ट में संभावनाएं देखते हुए पॉडकास्ट क्रियेटर प्रोग्राम शुरू किया है जिसमें चुने हुए लोगों को पॉडकास्ट की आवश्यक ट्रेनिंग के अलावा वित्तीय मदद भी दी जायेगी |पिछले साल गूगल ने अपना एंडरायड एप भी प्ले स्टोर पर लांच किया है |भारत जैसे देश में ध्वनि  व्यवसाय के लिएसंभावनाएं कितनी हैंइसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि देश में भले ध्वनि समाचारों के लिए आकाशवाणी का एकाधिकार है |सरकार इस एकाधिकार को निकट भविष्य में प्राइवेट रेडियो ऍफ़ एम् के साथ साझा करने के मूड में नहीं दिखती ऐसे में रेडियो का विचार क्षेत्र व्यवसाय के रूप में एकदमखाली पड़ा है |पॉडकास्ट उस खालीपन को भरकर देश के ध्वनि उद्योग में क्रांति कर सकता है और रेडियो संचारकों को अपनी बात नए तरीके से कहने का विकल्प दे सकती है |
नवभारत टाईम्स में 29/01/19 को प्रकाशित 

Sunday, January 27, 2019

समाज में बुजुर्गों की अनदेखी

जनसंख्या के लिहाज  से दुनिया का दूसरा बड़ा देश होने के नाते भारत की आबादी पिछले 50 सालों में हर दस  साल में बीस  प्रतिशत  की दर से बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1 अरब 20 करोड़ से भी अधिक रही, जो दुनिया की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है। इस आबादी में आधे लोगों की उम्र 25 से कम है पर इस जवान भारत में   बूढ़े लोगों के लिए भारत कोई सुरक्षित जगह नहीं है,टूटते पारिवारिक मूल्य, एकल परिवारों में वृद्धि  और उपभोक्तावाद की आंधी में घर के बड़े बूढ़े कहीं पीछे छूटते चले जा रहे हैं|जीवन प्रत्याशा की दर में सुधार के परिणामस्वरुप साठ वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की संस्था में वृद्धि हुई है| सन 1901 में भारत में 60वर्ष से अधिक उम्र के लोग मात्र 1.2 करोड़ थे| यह आबादी बढ़कर सन 1951 में दो  करोड़ तथा 1991 में 5.7करोड़ तक पहुँच गई|'द ग्लोबल एज वॉच इंडेक्स' ने दुनिया के 91 देशों में बुज़ुर्गों के जीवन की गुणवत्ता का अध्ययन के अनुसार बुज़ुर्गों के लिए स्वीडन दुनिया में सबसे अच्छा देश है और अफगानिस्तान सबसे बुरा,इस इंडेक्स में चोटी के20 देशों में ज़्यादातर पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका के हैं| सूची में  भारत 73वें पायदान पर है| वृद्धावस्था में सुरक्षित आय और स्वास्थ्य जरूरी है|उम्र का बढ़ना एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है| इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता है| पर भारत जैसे देश  में जहाँ मूल्य और संस्कार के लिए जाना जाता है वहां ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं हैरान करते हैं कि इस देश में बुढ़ापा काटना क्यूँ मुश्किल होता जा रहा है |बचपने में एक कहावत सुनी थी बच्चे और बूढ़े एक जैसे होते हैं इस अवस्था में सबसे ज्यादा समस्या अकेलेपन के एहसास की होती है जब बूढ़े उम्र की ऐसी दहलीज पर होते हैं जहाँ उनके लिए किसी के पास कोई समय नहीं होता है |वो बच्चे जिनके भविष्य के लिए उन्होंने अपना वर्तमान कुर्बान कर दिया ,अपने करियर की उलझनों में फंसे रहते हैं या जिन्दगी का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं |ऐसे में अकेलेपन का संत्रास किसी भी व्यक्ति को तोड़ देगा |भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा 
|डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन (16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 प्रतिशत  से भी ज्यादा आंकी गई है. बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चौंकाने  वाले आंकड़े भी हैं. जैसे 60 वर्ष  की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है| 80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे| अगले 5 वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी. सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी. और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें| पुराने ज़माने के संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार लेते जा रहे हैं जिससे भरा पूरा रहने वाला घर सन्नाटे को ही आवाज़ देता है बच्चे बड़े होकर अपनी दुनिया बसा कर दूर निकल गये और घर में रह गए अकेले माता –पिता चूँकि माता पिता जैसे वृद्ध भी अपनी जड़ो से कट कर गाँव से शहर आये थे इसलिए उनका भी कोई अनौपचारिक सामजिक दायरा उस जगह नहीं बन पाता जहाँ वो रह रहे हैं तो शहरों में यह चक्र अनवरत चलता रहता है गाँव से नगर, नगर से महानगर वैसे इस चक्र के पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है बेहतर अवसरों की तलाश ये बात हो गयी शहरों की पर ग्रामीण वृद्धों का जीवन शहरी वृद्धों के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में और ज्यादा मुश्किल है वहीं अकेलापन तो रहता ही है |बेटे बेटियां बेहतर जीवन की आस में शहर चले गए और वहीं के होकर रह गयें गाँव में माता –पिता से रस्मी तौर पर तीज त्यौहार पर मुलाक़ात होती हैं कुछ ज्यादा ही उनकी फ़िक्र हुई थी उम्र के इस पड़ाव पर एक ही इलाज है उन वृद्धों को उनकी जड़ों से काट कर अपने साथ ले चलना |ये इलाज मर्ज़ को कम नहीं करता बल्कि और बढ़ा देता है |
जड़ से कटे वृद्ध जब शहर पहुँचते हैं तो वहां वो दुबारा अपनी जड़ें जमा ही नहीं पाते औपचारिक सामजिकता के नाम पर बस अपने हमउम्र के लोगों से दुआ सलाम तक का ही साथ रहता है | ऐसे में उनका अकेलापन और बढ़ जाता है |इंटरनेट की आदी होती  यह पीढी दुनिया जहाँ की खबर सोशल नेटवर्किंग साईट्स लेती है पर घर में बूढ़े माँ बाप को सिर्फ अपने साथ रखकर वो खुश हो लेते हैं कि वह उनका पूरा ख्याल रख रहे हैं पर उम्र के इस मुकाम पर उन्हें बच्चों के साथ की जरुरत होती है पर बच्चे अपनी सामाजिकता में व्यस्त रहते हैं उन्हें लगता है कि उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा कर वो उनका ख्याल रख रहे हैं पर हकीकत में वृद्ध जन यादों और अकेलेपन के भंवर में खो रहे होते हैं | महत्वपूर्ण ये है कि बुढ़ापे में विस्थापन एक गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है मनुष्य यूँ ही एक सामाजिक प्राणी नहीं है पर सामाजिकता बनाने और निभाने की एक उम्र होती है| समस्या का एक पक्ष सरकार का भी है चूँकि बूढ़े लोग अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं देते इस तरह वे अर्थव्यवस्था पर बोझ ही रहते हैं तो सरकारी योजनाओं का रुख बूढ़े लोगों के लिए कुछ खास लचीला नहीं होता |सरकारों का सारा ध्यान युवाओं पर केन्द्रित रहता है क्योंकि वे लोग अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदान दे रहे होते हैं |
9 अगस्त 2010 को भारत सरकार ने गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों तथा विशेष रूप से कमजोर वर्गों सहित समाज के सभी वर्गों को वृद्धावस्था सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए नई पेंशन योजना को मंजूरी दी और उसके बाद यह योजना पूरे देश में स्वावलंबन योजना से लागू की गई। इस योजना के तहत गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों को अपनी वृद्धावस्था के लिए स्वेच्छा से बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस योजना में केंद्र सरकार लाभार्थियों के एनएफएस खाते में प्रति वर्ष  1000 का योगदान करती है। सरकार ने राष्ट्रीय वृधावस्था पेंशन योजना जरुर शुरू की है पर यह उस भावनात्मक खालीपन को भरने के लिए अपर्याप्त है जो उन्हें अकेलेपन से मिलती है |विकास और आंकड़ों की बाजीगरी में बूढ़े लोगों का दावा कमजोर पड़ जाता है |विकास की इस दौड़ में अगर हमारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा यूँ ही बिसरा दिया जा रहा है तो ये यह प्रवृति एक बिखरे हुए समाज का निर्माण करेगी |जिन्दगी की शाम में अगर जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अकेलेपन से गुजर रहा है तो यह हमारे समाज के लिए शोचनीय स्थिति है क्योंकि इस स्थिति से आज नहीं तो कल सभी को दो चार होना है |

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 27/01/2019  को प्रकाशित 

Tuesday, January 22, 2019

अपनी प्लानिंग के साथ चलिए

मैं काफी दिनों से कुछ लिखने का प्लान कर रहा था पर क्या लिखूं समझ नहीं पा रहा था. वैसे प्लान बड़ा इंट्रेस्टिंग शब्द है.आज प्लान को बगैर प्लान किये हुए समझने की कोशिश करते हैं. वैसे भी आजकल प्लानिंग का ज़माना है,वो चाहे फाइनेंसियल प्लानिंग हो या फैमली, प्लान तो हम सब करते हैं कुछ न कुछ.आपने भी तो प्लान   किया होगा  कि सुबह उठकर अखबार के इस कॉलम को पढना है.मेरे एक मित्र कहते हैं कि इन्सान  प्लानिंग ही कर सकता है उसका एप्रूवल ऊपर वाले के हाथ होता है.सच ही है न अब देखिये न हमारे हाथ में वास्तव में कुछ भी नहीं है. हम लोग तो बस कोशिश ही कर सकते हैं.भाई हम सब अपनी ज़िन्दगी में कितने प्लान बनाते हैं पर सब थोड़ी न पूरे होते हैं पर हर प्लानिंग का कोई न कोई बेस जरुर होता है.
जो प्लानिंग का आधार  नहीं बनाते उन्हें डे ड्रीमर कहते हैं जो सिर्फ योजनाएं बनाते रहते हैं पर प्रैक्टिस में कुछ नहीं कर पाते.अब मोबाईल को ही लीजिए कम्पनी के प्लान बहुत सारे होते हैं पर हम जरुरत और जेब के हिसाब से अपना प्लान चुनते हैं, न कि दूसरों की देखा देखी.मोबाईल पर अगर इंटरनेट चलाना है या चैट करनी है, तभी हमें डाटा प्लान की जरुरत पड़ेगी पर अगर इंटरनेट चलाना है तो स्मार्ट फोन लेना पड़ेगा, नहीं तो डाटा प्लान लेने का कोई मतलब नहीं है. प्लानिंग कोई भी हो सब एक दूसरे से इंटर लिंक्ड ही होती हैं अगर आपने फैमिली की प्लानिंग की तो फाइनेंसियल प्लानिंग का कुछ हिस्सा अपने आप हो जायेगा.भाई बच्चे कम तो उनपर होने वाला खर्चा कम मतलब बचत ज्यादा.तो ये बात तो साबित  हो गयी कि प्लानिंग करनी चाहिए पर कैसे की जाए मामला यही महत्वपूर्ण है.
वैसे मैंने अक्सर देखा है कि लोग कॉल या मेसेज न कर पाने का कारण बैलेंस का न होना बताते हैं.ऐसा कभी कभार होता है तो चलेगा पर ऐसा अगर अक्सर हो रहा है तो मामला गडबड है.कभी आपने सोचा कि ऐसा क्यों होता है इसके दो कारण हो सकते हैं या तो आपकी प्लानिंग ठीक नहीं है या आपकी प्राथमिकता में फोन रीचार्ज करना उतना जरूरी नहीं है.अगर आप पढ़ाई कर रहे हैं तो लेट नाईट चैट प्लान आपके किसी काम का नहीं,अब अगर सस्ते के चक्कर में मोबाईल का लेट नाईट चैट प्लान ले लेंगे तो जाहिर आपके बाकी के प्लान जिसमें पढ़ाई और भविष्य  के और प्लान गड़बड़ायेंगे. यानि या तो अपने आपको बदलिए या अपने प्लान को.प्लानिंग करते वक्त अपनी जरुरत और सीमाओं के बीच बैलेंस जरुर बनाइये. ये बात उतनी आसान भी नहीं है कई बार हमारे प्लान की सफलता या विफलता और  फैक्टर्स पर भी निर्भर करता है, और जब ऐसा होता है तो समझ लीजिए कि आपके लाख चाहने के बाद भी ऊपर वाला आपके प्लान को पास  नहीं कर रहा है, पर इसका मतलब न निकाल लीजिए कि आपके चाहने से क्या होता है,या प्लान करने से क्या फायदा.प्लान कीजिये परिस्थितियों से जूझिये सफल होते हैं तो उसका मजा लीजिए और अगर फेल हो जाते हैं तो फिर से कोशिश कीजिये.
अपनी प्लानिंग को विश्लेषित कीजिये कि गडबड कहाँ  हुई.आखिर हम अपने सपनों को इतनी आसानी से थोड़ी न छोड़ सकते है पर उन सपनों पर वास्तविकता से सम्बन्ध जरुर रखें.वास्तविकता से मतलब आप अपनी आय  के हिसाब से ही बचत करते हैं कभी ऐसा नहीं हो सकता कि आपकी आय  कम हो और बचत ज्यादातो कुछ भी प्लान करते वक्त इस बात का एहसास जरुर रखिये कि आप जो कुछ सोच रहे हैं वो कितना वास्तविकता के कितना करीब है.अगर आपकी देर रात में पढ़ने की आदत है तो दिन में पढ़ने की प्लानिंग मत करिये दिन में बाकी के काम के साथ थोड़ा सो भी लीजिए और रात में पढ़ाई  कीजिये.तो मैं आपको छोड़े जा रहा हूँ कुछ नया प्लान करने के लिए क्यूंकि आने वाला दिन आज से बेहतर इसी प्लान के साथ हो सकता है.
प्रभात खबर में 22/01/19 को प्रकाशित


Sunday, January 20, 2019

मेरी किताब "यायावरी की कहानियां :लौट के बताता हूँ "

लेखक के बारे में
डॉ मुकुल श्रीवास्तव: एसोशियेट प्रोफ़ेसर और  विभागाध्यक्ष  पत्रकारिता एवं जनसंचार विभागलखनऊ विश्वविद्यालय  , पिछले उन्नीस  वर्ष से पत्रकारिता शिक्षण में संलग्न हैं |वे अब तक पांच  पुस्तकें लिख चुके हैं इसके अतिरिक्त तीन किताबों का  अनुवाद भी किया है ,जिसमें  नोबेल  पुरूस्कार विजेता  वी एस  नायपॉल की  प्रसिद्ध  पुस्तक  "एन एरिया  ऑफ़ डार्कनेस " भी  शामिल है डॉ श्रीवास्तव की पहली पुस्तक "मानवाधिकार और मीडिया "को मानवाधिकार आयोग का राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त हुआ है |वे  इटली ,अमेरिका और इंग्लैण्ड का विदेश दौरा कर चुके हैं |उनके लेख भारत के लगभग सभी ख्यातिलब्ध हिंदी राष्ट्रीय दैनिकों के सम्पादकीय पेज पर छपते रहते हैं जिसमें आई नेक्स्ट/दैनिक जागरणहिन्दुस्तानअमर उजाला राष्ट्रीय सहारा ,जनसत्ताजनसंदेश टाईम्स ,डेली न्यूज़ एक्टीविस्टआदि  | पांच वर्षों तक वे एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर  बी बी सी हिंदी से भी जुड़े हुए रहे हैं |डिजीटल स्टोरी टेलिंग के रूप में आपकी बनाई फिल्म सीधी बात नो बकवास को अमेरिका की ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी से सराहना प्राप्त हुई है |समाचार पत्रिका इंडिया टुडे (अंग्रेजी अक्तूबर 2010 संस्करण  )के पैंतीस वर्ष पूरे होने पर छापे गए विशेषांक में पूरे भारत से पैंतीस ऐसे युवाओं में चुने गए जो अपने तरीके से देश बदल रहे हैं |इनके ब्लॉग मुकुल मीडिया को भी काफी सराहा जाता है |यात्रा वृतांत ,न्यू मीडिया और इंटरनेट जैसे विषयों पर लिखना पढ़ना पसंद है | डॉ  श्रीवास्तव   दस  वृत्त चित्रों का   निर्देशन  कर चुके  हैं  |

किताब के बारे में


आदिकाल से यात्रा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। अज्ञात के प्रति मनुष्य के मन में स्वाभाविक जिज्ञासा है
जो उसे नए और अनदेखे स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करती है। असल में यात्राएं तो आज की दुनिया में सभी करते हैं पर यात्राओं को लिखने के लिए यात्रा को जीना बहुत जरूरी है। भारत जैसे विविधता भी वाले देश में यात्रा वृतांत लिखने की बहुत समृद्ध परंपरा नहीं रही है। लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन ने यात्रा वृतांत को एक विधा के रूप में जहां लोकप्रिय बनाया है वहीं पाठकों को पढ़ने के लिए नया विकल्प भी दिया है। प्रस्तुत पुस्तक लेखक के देश और विदेश में घूमे गए स्थानों के बारे में ना केवल जानकारी देती है बल्कि एक तरह से शब्द चित्रों का निर्माण भी करती है। पुस्तक जम्मू कश्मीर राज्य के तीनों हिस्सों को समेटती है। जिसमें जम्मूकश्मीर घाटी और लद्दाख का हिस्सा शामिल है वहीं पूर्वोत्तर भारत के सिकिक्म की यात्रा के अलावा  उदयपुर (राजस्थान )और टिहरीयात्रा भी शामिल है इसके अतिरिक्त इटलीअमेरिकाऔर इंग्लैंड के यात्रा वृतांत भी है। यह पुस्तक पत्रकारिता एवं जनसंचार के विद्यार्थियों,शोधार्थियों के अलावा उन लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण होगी जिन्हें यात्राओं के बारे में पढ़ने का शौक है।
16/09/2019 को नवभारत टाईम्स में प्रकाशित 
हिदुस्तान लखनऊ संस्करण में 21/05/2019 को प्रकाशित समीक्षा 


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द हिन्दू मे 19/04/19 को प्रकाशित समीक्षा 













दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण 17/11/2019 को प्रकाशित 

आम यूजर्स को मिल रहा सलेब्रिटी स्टेट्स

बात ज्यादा पुरानी नहीं है .आज से पांच साल पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक ऐसा वक्त भी आएगा जब आप कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करेंगे और पैसे भी कमाएंगे .बात चाहे यात्राओं की हो या खान –पान की या फिर फैशन की देश विदेश की बड़ी कम्पनिया ऐसे लोगों को जो इंटरनेट पर ज्यादा फोलोवर रखते हैं अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए पैसे दे रही हैं और उनके खर्चे भी उठा रही हैं . इंटरनेट की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण बात है इसकी गतिशीलता नया बहुत जल्दी पुराना हो जाता है और नई संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं .सोशल मीडिया प्लेटफोर्म नित नए रूप बदल रहे हैं उसमें नए –नए फीचर्स जोड़े जा रहे हैं .इस सारी कवायद का मतलब ऑडिएंस को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक अपने प्लेटफोर्म से जोड़े रखना .इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय भी है .अब सोशल मीडिया इतना तेज़ और जन-सामान्य का संचार माध्यम बन गया कि इसने हर उस व्यक्ति को जिसके पास स्मार्ट फोन है और सोशल मीडिया पर उसकी एक बड़ी फैन फोलोविंग  वह एक चलता फिरता मीडिया हाउस बन गया  है . अब वह वक्त जा चुका है जब सेलेब्रेटी स्टेट्स माने के लिए किसी को सालों इन्तजार करना पड़ता था .सोशल मीडिया रातों रात लोगों को सेलिब्रटी बना दे रहा है जिसमें बड़ी भूमिका ,फेसबुक ,इन्स्टाग्राम और यू ट्यूब जैसी साईट्स निभा रही हैं .ग्लोबल सोशल मीडिया रैंकिंग 2018 के अनुसार इस वक्त फेसबुक दुनिया की सबसे बड़ी सोशल मीडिया साईट है उसके बाद यू ट्यूब और व्हाट्स एप का नम्बर आता है .दुनिया भर की इन सोशल मीडिया साईट्स की भीड़ में एक साईट्स बहुत तेजी से अपनी जगह बना रही है और वह है इन्स्टाग्राम. यह एक फोटो और विडियो शेयरिंग एप्प है जिसे फेसबुक ने साल 2012 में मात्र एक बिलीयन डॉलर में खरीदा था .आज इसकी कीमत सौ बिलियन डॉलर हो गयी है.ब्लूमबर्ग इंटेलीजेंस रिपोर्ट के अनुसार इन्स्टाग्राम के आज एक बिलियन एक्टिव यूजर हैं जो जल्दी ही दो बिलियन हो जायेंगे और अगले पांच साल में इसके उपभोक्ता फेसबुक के बराबर हो जायेंगे .अन्य सोशल मीडिया साईट्स की तरह इन्स्टाग्राम भी अपना इंटरफेस लगातार बदल रहा है . जैसे कि  फोटोग्राफिक फिल्टर्स, स्टोरीज, छोटे विडियो, ईमोजी, हैशटैग इत्यादि .यह इन्स्टाग्राम जैसी साईट्स का ही कमाल है कि  सोशल मीडिया यूजर्स अपनी बड़ी फैन फोलोइंग का फ़ायदा “सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर”  के तौर पर उठा रहें और यह एक विज्ञापन के नए माध्यम के रूप में तेजी से उभर रहा है .अब वह वक्त इतिहास हो चला है जब बड़े खिलाड़ी ,फिल्म स्टार ही किसी ब्रांड का प्रमोशन करते हुए विज्ञापन करते थे .सोशल मीडिया अब आम इंटरनेट यूजर्स को सितारा बना रहा है .
 देश  में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, व्यक्ति और ब्रांड प्रमोशन का बड़ा औजार  बनकर सामने आया है .  तकनीकी रूप से सोशल मीडिया इन्टरनेट आधारित एक वर्चुअल नेटवर्क है . सोशल मीडिया विज्ञापन का एक अपरंपरागत माध्यम  है . जो बाकी सारे मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और समानांतर मीडिया) से अलग है . यह एक वर्चुअल वर्ल्ड बनाता है जिसे उपयोग करने वाला व्यक्ति सोशल मीडिया के किसी प्लेटफॉर्म (फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम) आदि का इंटरनेट के माध्यम से  उपयोग कर किसी भी नेट कनेक्टेड व्यक्ति तक पहुंच बना सकता है . इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत के शहरी इलाकों में प्रत्येक चार में से तीन व्यक्ति सोशल मीडिया का किसी न किसी रूप में प्रयोग कर रहे  हैं . सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर वह आम व्यक्ति होता है जिसकी विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर काफी सारे फोलोवर होते हैं और वह अपनी इस लोकप्रियता का इस्तेमाल  विभिन्न तरह के उत्पाद बेचने में करता है  .मीडिया इन्फ्लुएंसर फर्म बुज्ज़ोका (Buzzoka) के एक शोध के  अनुसार “सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर न केवल ब्रांड जागरूकता  फ़ैलाने में सहायक है बल्कि प्रोडक्ट बेचने  में भी काफी कारगर  है .”इसी शोध में यह अनुमान लगाया गया है  कि भविष्य में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर परंपरागत विज्ञापन को कड़ी चुनौती देनें में सक्षम होंगे  . शोध के  अनुसार बावन प्रतिशत  भारतीयों का  यह मानना है कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के कारण लक्षित समुह तक पहुँचना आसान है  . इसमें रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट दूसरे विज्ञापन  माध्यमों के मुक़ाबले अधिक है . यह सर्वेक्षण के अनुसार भारत में   इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग इकतीस प्रतिशत  की दर से  आगे बढ़ रही है . साल 2018 में देश की अधिकतर कम्पनियों ने अपने विज्ञापन  बजट का पांच से सात प्रतिशत   ख़र्चा ऑनलाइन इन्फ्लुएंसर पर किया . साल 2019 में शोध में शामिल  कम्पनियों में से तिहत्तर प्रतिशत  कम्पनियों का मानना  है कि वे ऑनलाइन इन्फ्लुएंसर पर होने वाले बजट को और बढ़ाएंगे . इसी शोध में यह निष्कर्ष भी सामने आया है कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर में सब से पसंदीदा एडवरटाइजिंग सोशल मीडिया इन्सटाग्राम है और शायद यही इसकी तेजी से बढ़ती लोकप्रियता का कारण भी है  . इसके बाद फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप  और यूट्यूब सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की पसंद है . देश के लाखों युवा सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर को एक करियर के अच्छे विकल्प के रूप में देख रहे हैं . सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर जहाँ विज्ञापनों की दुनिया में एक नया आयाम गढ़ रहा है वहीं विज्ञापनों की दुनिया में सेलिब्रेटी स्टेट्स को खत्म भी कर रहा है .जहाँ हमारे आपके बीच के लोग ही स्टार बन रहे है .भारत में चूँकि अभी इंटरनेट बाजार में पर्याप्त संभावनाएं हैं इसलिए अभी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर का यह दौर चलेगा पर परम्परागत विज्ञापनों में शामिल खिलाड़ियों और सिने कलाकारों के प्रति लोगों का मोह एकदम से कम तो नहीं हुआ है पर इसकी शुरुआत जरुर हो गयी है .इन दोनों की लड़ाई में कौन जीतेगा इसका फैसला वक्त को करना है.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 20/01/19 को प्रकाशित 

Friday, January 11, 2019

अक्षय ऊर्जा से ही बचेगा जीवन

ग्लोबल वार्मिग की समस्या रोकने के लिए जितने कारगर कदम उठाए जाने चाहिए थे वे नहीं उठाए गए जिससे मानव जीवन और देशों के स्वास्थ्य तंत्र दोनों को खतरा है। हाल में आई लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार इससे होने वाले खतरे की आशंका पहले के अनुमानों से कहीं अधिक है। इस रिपोर्ट में दुनिया के 500 शहरों में किए गए सर्वे के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि संबंधित रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए दुनिया के अस्पताल तैयार नहीं हैं। इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं। बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला। दरअसल इंग्लैंड के अस्पताल जलवायु में अचानक हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे। वर्ष 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण 153 बिलियन घंटों का नुकसान दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा। कुल नुकसान का आधा हिस्सा भारत ने उठाया जो यहां की कुल कार्यशील आबादी का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिग दो अलग मसले नहीं हैं, बल्कि आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
दावोस (स्विट्जरलैंड) में आयोजित विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक बैठक के पाश्र्व में ‘पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक 2018’ को जारी किया गया जिसमें 178 देशों पर पर्यावरण प्रदर्शन को लेकर एक अध्ययन किया गया जिसमें भारत 174वें स्थान पर रहा। पर्यावरण के मामले में भारत दुनिया के बेहद असुरक्षित देशों में है। अधिकांश उद्योग पर्यावरणीय दिशा-निर्देशों, विनियमों और कानूनों के अनुरूप नहीं हैं। देश की आबोहवा लगातार खराब होती जा रही है। शोध अध्ययन से यह पता चला है कि कम गति पर चलने वाले यातायात में विशेष रूप से भीड़ के दौरान जला हुआ ईंधन चार से आठ गुना अधिक वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है, क्योंकि डीजल और गैस से निकले धुएं में 40 से अधिक प्रकार के प्रदूषक होते हैं। यह तो रही शहर की बात जहां यातायात प्रदूषण एक ग्लोबल समस्या के रूप में लाइलाज बीमारी बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र भी प्रदूषण विस्तार के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवार रसोई के ईंधन के लिए लकड़ी पर, करीब 10 प्रतिशत गोबर के उपलों पर और पांच प्रतिशत रसोई गैस पर निर्भर हैं। घर में प्रकाश के लिए करीब 50 प्रतिशत परिवार ही बिजली पर निर्भर हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में इसी कार्य के लिए 89 प्रतिशत परिवार बिजली पर तथा अन्य 11 प्रतिशत परिवार केरोसिन पर निर्भर हैं। लेकिन इस धुंधली तस्वीर का दूसरा पहलू यह बता रहा है कि भारत सरकार गैर-परंपरागत ऊर्जा नीतियों को लेकर काफी गंभीर है। देश में सौर ऊर्जा की संभावनाएं भी काफी अच्छी हैं। हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसार, भारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में 250 से 300 धूप निकलने वाले दिनों सहित प्रतिदिन प्रति वर्गमीटर चार से सात किलोवॉट घंटे का सौर विकिरण प्राप्त होता है। राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में यह स्थिति अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा है।
भारत का अक्षय ऊर्जा क्षेत्र बीते कुछ समय से सुर्खियों में बना हुआ है। हाल ही में ब्रिटेन की अकाउंटेंसी फर्म अर्नेस्ट एंड यंग द्वारा अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए आकर्षक देशों की सूची में भारत को दूसरा स्थान दिया। वहीं भारत सरकार की ऊर्जा नीति में सुधार की शुरुआत अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के फैसले के साथ हुई। जून 2015 में जवाहरलाल नेहरू नेशनल सोलर मिशन के लक्ष्य की समीक्षा करते हुए मोदी सरकार ने 2022 तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 20,000 मेगावॉट के आंकड़े से पांच गुना बढ़ाकर एक लाख मेगावॉट कर दिया। इसमें 40,000 मेगावॉट बिजली रूफटॉप सोलर पैनलों और 60,000 मेगावॉट बिजली छोटे और बड़े सोलर पॉवर प्लांटों द्वारा पैदा की जाएगी। अगर भारत इस लक्ष्य को हासिल कर लेता है तो हरित ऊर्जा के मामले में वह दुनिया के विकसित देशों से आगे निकल जाएगा। यह प्रदूषण मुक्त सस्ती ऊर्जा के साथ-साथ ऊर्जा उपलब्धता और देश की आत्मनिर्भरता बढ़ाने में सहायक साबित होगा। वैश्विक पटल पर भारत इस समय विश्व में गैर-परंपरागत ऊर्जा के संसाधनों पर चिली के बाद भारत सबसे ज्यादा निवेश करता दिख रहा है। क्लाइमेट स्कोप 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत इस समय अक्षय ऊर्जा के संसाधनों को स्थापित करने के संदर्भ में दूसरे स्थान पर है। एनर्जी रिसर्च ब्लूमबर्ग ने 103 देशों की ऊर्जा नीतियों, पावर सेक्टर तंत्र, प्रदूषण उत्सर्जन और अक्षय ऊर्जा के संसाधनों के संदर्भ में हुए कार्यो का अध्ययन किया जिसमें पाया गया कि भारत 2.57 अंकों के साथ अक्षय ऊर्जा के संसाधनों पर खर्च के मामलों में विश्व में दूसरे स्थान पर है। वहीं चिली 2.63 अंकों के साथ पहले स्थान पर है। लेकिन इसके साथ भी बहुत कुछ जरूरी है- जैसे पर्यावरण की सुरक्षा से ही प्रदूषण की समस्या को सुलझाया जा सकता है। यदि हम अपने पर्यावरण को ही असुरक्षित कर दें तो हमारी रक्षा कौन करेगा? पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम के प्रति भारत का रवैया पिछले कुछ सालों से काफी सकारात्मक दिख रहा है जिसमें गैर-परंपरागत ऊर्जा के संसाधनों के इस्तेमाल पर ज्यादा कार्य हो रहा है। इस समस्या पर यदि हम आज मंथन नहीं करेंगे तो प्रकृति संतुलन स्थापित करने के लिए स्वयं कोई भयंकर कदम उठाएगी। प्रदूषण से बचने के लिए हमें अत्यधिक पेड़ लगाने होंगे। प्रकृति में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने से बचना होगा। प्लास्टिक से परहेज करना होगा। वर्षा जल का संचय करते हुए भूमिगत जल को संरक्षित करने का प्रयास करना होगा। पेट्रोल, डीजल के अलावा हमें ऊर्जा के अन्य विकल्प ढूंढने होंगे। सौर ऊर्जा व पवन ऊर्जा के प्रयोग पर बल देना होगा।
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 11/01/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, January 1, 2019

प्रिय मित्र,साल 2019

प्रिय मित्र साल 2019
आखिर तुम आ ही गए और मेरे जाने का वक्त आ गया, पर चलने से पहले कुछ बातें तुम से बाँट लूँ. वैसे तुम आते ही व्यस्त हो जाओगे खुशियाँ मनाने में. तो मैंने सोचा चलने से पहले एक चिट्ठी तुम्हारे लिए लिख दूँ. मित्र मैंने एक साल में जीवन के कई रंग देखे कुछ अच्छे थे कुछ बुरे. कई जगह मुझे इस बात का पछतावा हुआ कि मैं बेहतर कर सकता था पर चीजें देर से समझ में आयीं. जब भी हम कोई नया काम सम्हालते हैं तो लोगों से हमें बहुत उम्मीदें रहती हैं और हमें लगता है कि ये खुशियाँ ऐसी ही रहेंगी पर वास्तव में ऐसा होता नहीं जब मैं आया था तो लोगों ने खूब खुशियाँ मनाई और मैंने भी इनका खूब आनंद लिया लेकिन धीरे धीरे खुशियाँ कम हुईं और लोगों की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं. मैं कुछ पूरी कर पाया और कुछ नहीं शिक्षा और बुनियादी ढाँचे पर काम हुआ लोग विकास के मुद्दे पर जागरूक हुए  .जो काम मैंने शुरू किया उसे तुम्हें आगे बढ़ाना है .
तुम जब आओगे तो खूब खुशियाँ मनाओगे ठीक भी है पर ये मत भूल जाना कि ये साल तुम्हारे लिए अवसर भी लाएगा और चुनौतियाँ  भी अगर चुनौतियाँ को अवसर में बदल लोगे तो तुम्हारी जय  होगी .आखिर ये चुनाव का साल है उस लिहाज से संवेदनशील भी .जब मैं छोटा था तो मुझे लगता था कि मैं सही हूँ और जो बड़े लोग कहते हैं वो सही नहीं है  या शायद वे  मुझे समझते नहीं. पर उम्र के इस मुकाम पर आकार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं गलत था जो भी मुझसे बड़े मेरे लिए कहते थे वो सही थे पर मेरे पास अनुभवों को वो खजाना नहीं था कि मैं उनकी बातों को समझ सकूँ.
 हो सकता तुम्हें मेरी बातें समझ में न आ रही हों या बुरी लग रही  हों पर दोस्त जब जिंदगी सिखाती है तो अच्छा ही सिखाती है अब ये तुम्हारे ऊपर है तुम मेरी बात को ठोकर खा कर  समझो या पहले से ही जान लो कहाँ सम्हल कर चलना है ,मैंने अपनी जिंदगी में यही सीखा है लोगों को साथ ले कर चलो सुनो सबकी इस छोटे से जीवन में मुझे लगता है कमसे कम ये काम तो हम कर ही सकते हैं खुशियों को सर पर न चढ़ने दें आखिर एक दिन तुम्हें भी जाना है तो सकारात्मक सोच के साथ काम करोगे तो ठीक रहेगा .दुनिया तो बहुत तेजी से बदल रही है कल मैं नया था आज पुराना हो गया हूँ ऐसा तुम्हारे साथ भी होगा इस लिए ये अपने आने वाले कल को सोच कर अपना आज मत खराब मत कर लेना. अगर कुछ गलत हो भी जाए तो उसे इस सोच के साथ स्वीकार करना कि चलो कुछ तजुर्बा ही हुआ जिसे तुम आगे आने वाली पीढ़ी को बता सको .
हमारी सभ्यता इसी तरह विकसित हुई है और आगे भी होती रहेगी .तुम आ रहे हो और मैं जारहा हूँ मैं इस आने जाने की प्रक्रिया को याद रखना जो आया है वो जाएगा . तुम्हें ये पत्र लिखना तो सिर्फ एक बहाना था जिसे मैं तुमसे अपनी बात कह सकूँ क्योंकि बात से बात चलती है तो अंत में इस बात को हमेशा ध्यान रखना लोगों की बात सुनते रहना और अपनी बात रखते चलना ये प्रक्रिया  बन्द मत करना . इस उम्मीद के साथ मैं चलता हूँ कि आने वाले साल में तुम खुद भी खुश रहोगे और लोगों को खुश रखोगे
अलविदा
बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ
तुम्हारा दोस्त
2018
प्रभात खबर 01/01/2019 में प्रकाशित 

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