फिल्म ‘थप्पड़’ ने घरेलू हिंसा को संवेदनशील बहस के दायरे में ला दिया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि पिछले कुछ समय से जेंडर इश्यूज को न सिर्फ समाज में अहम जगह मिली है, बल्कि बॉलिवुड में भी इन्हें प्रमुखता मिल रही है। कुछ समर्थ निर्देशकों ने समाज में चल रहे विमर्श को सिनेमा में जगह देकर स्त्री के संघर्ष को आगे बढ़ाने की प्रगतिशील भूमिका निभाई है। जाहिर है, ये डायरेक्टर एक्टिविस्ट के रोल में भी हैं। फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम का उन्होंने एक बड़े सामाजिक बदलाव के लिए सार्थक इस्तेमाल किया है। भारतीय सिनेमा में इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं और उन्होंने सामाजिक तब्दीली में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन मुख्यधारा में ऐसे लोगों की बहुतायत रही है जो समाज में प्रचलित पुरुष वर्चस्व वाले जीवन मूल्य ही अपनी फिल्मों में परोसते रहे हैं। उन्हें पसंद किए जाने का कारण यह है कि दर्शकों का एक बड़ा तबका उन्हीं की तरह सोचता है।
चाहे प्यार का मामला हो या तकरार का, फिल्मी नायकों के संवादों और व्यवहार में पुरुषवादी रवैया साफ दिखता रहा है। फिल्म ‘धड़कन’ का यह संवाद देखिए- ‘मैं तुम्हें भूल जाऊं यह हो नहीं सकता और तुम मुझे भूल जाओ, यह मैं होने नहीं दूंगा।’ यह एक भावुकतापूर्ण संवाद लगता है जिसमें प्रेम की चरम की अभिव्यक्ति है, पर असल में यह एक धमकी है जो प्रेमी अपनी प्रेमिका को दे रहा है। प्रेमी एक टिपिकल पुरुष है जो स्त्री पर अपना स्वाभाविक अधिकार समझता है। एक लड़की की क्या मजाल जो वह किसी पुरुष का प्रेम ठुकरा दे! लड़कियों की ‘ना’ में ही उनकी ‘हां’ छिपी रहती है, यह दिव्य ज्ञान भारत के युवाओं को ऐसी ही फिल्मों से मिला है, जिनके मूल में पुरुषवादी सोच हावी रहती है, जो महिलाओं को दोयम दर्जे का जीव मानती है। इस सोच की ही परिणिति यथार्थ जीवन में किशोरों/युवाओं द्वारा लड़कियों का पीछा करने की घटनाओं में होती है जिससे उनका जीना दूभर हो जाता है।
ऐसे ही कुछ और संवादों पर नजर डालें- ‘प्यार से गले लग जा तो रानी बना दूंगा, नहीं तो पानी पानी कर दूंगा’ (बेताज बादशाह)। ‘घोड़ी और जवान लड़की की लगाम जरा कसके रखनी चाहिए’ (दर्दे दिल)। ‘लड़की का मॉडल हो या गाड़ी का, वक्त के साथ दोनों पुरानी हो जाती हैं (खून भरी मांग)। ‘व्हेन यू कांट चेंज द गर्ल, चेंज द गर्ल’- लड़की का रवैया नहीं बदल सकते तो लड़की ही बदल दो (चश्मे बद्दूर)। ‘प्यार से दे रहे हैं रख लो वरना थप्पड़ मार के भी दे सकते हैं’(दबंग)। पिछले साल आई बहुचर्चित फिल्म ‘कबीर सिंह’ में प्रेम का ऐसा ही पुरुषवादी रूप दिखता है। इसमें नायक अपने प्रेम को क्रूरता की हद तक न्यायसंगत दिखाने का प्रयास करता है और लोग उसका परिणाम जाने बगैर तालियां बजाकर उसे सहानुभूति का पात्र बना देते हैं।
उसी फिल्म का एक संवाद है: ‘तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूं प्रीति। अगर तुझमें मेरे लिए वैसा पागलपन है, देन यू कॉल मी। अदरवाइज, यू नो मी।’ बड़े शालीन तरीके से नायिका को धमकाते हुए नायक बता रहा है कि जो मैं चाहता हूं वही करो। ऐसी फिल्में पुरुषवाद को बढ़ावा देती हैं, पर राहत की बात है कि पुरुषवाद के साये से निकल रही महिलाओं का पक्ष भी बॉलिवुड में अब प्रमुखता से आ रहा है। समाज का एक वर्ग महिला सशक्तीकरण के पक्ष में है, लिहाजा स्त्री की आवाज को फिल्मों में समर्थन मिल रहा है और ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हो रही हैं। बॉलिवुड के भीतर महिला कलाकारों ने अपने प्रति भेदभाव का खुलकर विरोध भी किया है। शोषण के खिलाफ, चाहे वह शारीरिक हो या आर्थिक, उन्होंने आवाज उठाई है। भारत में #मीटू आंदोलन को सबसे ज्यादा ताकत बॉलिवुड से ही मिली।
बॉलिवुड में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ रही है इसलिए अब ऐसी फिल्में भी बनने लगी हैं, जिनमें स्त्री का स्वतंत्र और ताकतवर चरित्र उभरकर आता है। पिछले पांच वर्षों में ऐसी कई फिल्में आई हैं, जैसे कहानी, गुलाब गैंग, क्वीन, मर्दानी, मैरी कॉम, दम लगा के हईशा, एन एच-10, पीकू, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स, एंग्री इंडियन गॉडेस, पिंक, नीरजा आदि। ‘दंगल’ जैसी बहुचर्चित फिल्म भी इसी श्रेणी में रखी जाएगी। ‘पिंक’ में स्त्री अस्मिता और उसकी निजता के दायरे से जुड़े अहम सवाल उठाए गए हैं। यह फिल्म हमारी मानसिकता में गहरी पैठ बना चुके लैंगिक भेदभाव पर करारी चोट करती है और नैतिकता-अनैतिकता के बंधे-बंधाए खांचों पर कुछ जरूरी सवाल उठाती है।
अमिताभ बच्चन द्वारा इस फिल्म में बोला गया यह संवाद बहुत जरूरी संदेश देता है- ‘‘नो’ अपने आप में एक वाक्य है। किसी व्याख्या, किसी स्पष्टीकरण की इसको कोई जरूरत नहीं है।’ फिल्म ‘नीरजा’ भी इस मायने में महत्वपूर्ण है। 1986 में हाईजैक हुए एक विमान के यात्रियों की सुरक्षा के लिए अपनी जान दांव पर लगाने वाली एयरहोस्टेस नीरजा भनोट की ज़िंदगी पर बनी इस फिल्म ने दिखाया कि मुश्किल परिस्थिति में भी एक लड़की कैसे अपना आपा नहीं खोती, जबकि पुरुष भयभीत हो जाते हैं। चर्चा प्राय: विमान परिचारिकाओं की खूबसूरती की ही होती है, मगर फिल्म बताती है कि एक सुंदर प्रफेशनल चेहरे के उस पार सूझबूझ और अपार साहस भी हो सकता है।
एक महिला मुक्केबाज की मुश्किलों को दर्शाती ‘साला खड़ूस’, एक मेहनतकश स्त्री के लिए शिक्षा की जरूरत को रेखांकित करती ‘निल बटे सन्नाटा’, अपनी धुनें तलाशती एक महिला संगीतकार की कहानी ‘जुगनी’ या फिर एक महिला पुलिस अधिकारी की कथा ‘जय गंगाजल’ भी महत्वपूर्ण हैं। पिछले दिनों आई ‘छपाक’ ने एक सनकी की क्रूरता झेलकर भी हिम्मत न हारने वाली एक लड़की का किस्सा बयान किया। ज्यों-ज्यों समाज में औरत की ताकत बढ़ेगी, उसके पक्ष में न सिर्फ ज्यादा फिल्में बनेंगी, बल्कि समूचे फिल्म जगत का रवैया उसके प्रति संवेदनशील होता जाएगा।
नवभारत टाईम्स में 07/03/2020 को प्रकाशित
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