खाद्य सुरक्षा विधेयक अभी भी कानून बनने के इंतज़ार में हैं जिसके अंतर्गत गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराने का वायदा किया गया है ग्रामीण क्षेत्र में इस विधेयक के दायरे में 75 प्रतिशत आबादी आएगी, जबकि शहरी क्षेत्र में इस विधेयक के दायरे में 50 प्रतिशत आबादी आएगी,वहीं देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 2010 के मुकाबले 2011 में 25.8 ग्राम बढ़कर 462.9 ग्राम प्रतिदिन हो गई। 2010 में यह 437.1 ग्राम थी,यानि देश में खाद्य संकट नहीं है पर जो लोग अनाज उपजा रहे हैं वही भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं|किसी भी देश के अन्नदाता वहां के किसान होते हैं| जिनके खेतों में उगाए अन्न को खा कर राष्ट्र स्वस्थ मानव संसाधन का निर्माण करता है|आंकड़ों के आईने में देश ने काफी तरक्की की है पर वास्तविकता के धरातल पर इस प्रश्न का उत्तर मिलना अभी बाकी है कि भारत के किसानों का परिवार कुपोषण और खराब स्वास्थ्य का शिकार कब और कैसे होने लग गए |इस देश का कृषक मजदूर वर्ग पोषित खाद्य पदार्थ से महरूम क्यों है जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य और बढ़ती बाल म्रत्यु दर में हो रहा है|साल 2011 में, दुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुईं।ये आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है|संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है| भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुई, उनमें 13 प्रतिशत की मृत्यु वजह की डायरिया ही था| दुनिया में डायरिया से होने वाली मौतों में अफगानिस्तान के बाद भारत का ही स्थान है।रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ़ पानी की कमी, और निवास के स्थान के आस पास गंदगी का होना है जिसकी एक वजह खुले में मल त्याग भी है |गंदगी ,कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर गांवों में होने वाले बच्चे बनते हैं| सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है देश के सकल घरेलु उत्पाद (जी डी पी ) का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है जो कि काफी कम है सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया |2008 में आयी स्टेट फ़ूड इनसिक्योरिटी इन रूरल इंडिया की ये रिपोर्ट आँखें खोल देने का काम करती है जिसके अनुसार भारत की कुल जनसँख्या का इक्कीस प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है जाहिरा तौर पर इस संख्या में बड़ा हिस्सा भारत के ग्रामीण तबके का है|सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है कि जो अन्न वो अपने खेतों में उपजाता है उसकी सही कीमत उसे नहीं मिलती और उसका फायदा बिचौलिए उठाते हैं,अन्न की सही कीमत न मिल पाने का कारण आर्थिक रूप से किसान की स्थिति में कोई आश्चर्यजनक बदलाव नहीं होते, वो अपने ही उगाए अन्न से दूसरों को पोषण देता है पर खुद का परिवार कुपोषित होता रहता है|कुपोषण का परिणाम स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं के रूप में सामने आता है और गावों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत किसी से छुपी नहीं है|ऐसे में किसान सब कुछ नियति का खेल मान निर्धनता,कुपोषण और अशिक्षा के दुष्चक्र में घूमने के लिए अभिशप्त रहता है| इसके सबसे ज्यादा शिकार छोटे और मझोले किसान होते हैं| कृषि उत्पादन में स्थिरता और कृषि लागत में बढोत्तरी के परिणाम स्वरूप पैदा हुए आर्थिक संकट ने किसानों की आय घटा दी है। सस्ते कर्ज की अनुपलब्धता स्थिति को और भी जटिल बना देती है|सरकारी नीतियां बड़े किसानों, चुनिंदा नगदी फसलों और ऊँची लागत वाली कृषि उत्पादन पद्धति को महत्त्व देती हैं।देश को अभी भी अपने अन्नदाता का पेट ही नहीं भरना है बल्कि उसे एक बेहतरीन मानव संसाधन में भी बदलना है जिससे भारत गर्व से कह सके कि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है |
गाँव कनेक्शन के 12/05/13 अंक में प्रकाशित
1 comment:
MUKUL shayd is bisay par jitna sochte ha utna ham kar nahi pate. Lekh pad kar achcha laga
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