Thursday, July 30, 2015

भीड़ प्रबंधन का नया औजार

लगभग हर क्षेत्र में अपनी धाक बना चुके स्मार्टफोन ने वीडियो कॉल से लेकर ऑनलाइन ख़रीददारीमोबाइल बैंकिंगचिकित्सा आदि क्षेत्रों के बाद अब आस्था के क्षेत्र में भी अपनी जगह बना ली है| वैसे भी स्मार्टफोन के मामले में भारत एक बड़ा और बढ़ता हुआ बाज़ार है| हर हाथ स्मार्टफोन वाली कहावत यहाँ सिद्ध होती प्रतीत हो रही है| ऐसे में अब धार्मिक आयोजन के लिए स्मार्टफोन का उपयोग एक नए तरीके की तकनीकी सफ़लता के कीर्तिमान गढ़ रहा है| ‘सर्वधर्म समभाव’ के देश भारत में धार्मिक आयोजन होना नयी बात नहीं है| लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब ऐसे आयोजनों में भीड़ अधिक हो जाती है और भगदड़ का कारण बनती है| ऐसे में आस्था के इन आयोजनों में श्रद्धालुओं को अपनी जान भी गंवानी पड जाती है| इन आयोजनों में आने वाली भीड़ का प्रबंधन हमेशा से ही सरकार के बाशिंदों के लिए एक मुश्किल भरा काम रहा है| देश में जब जब कोई बड़ा धार्मिक आयोजन होता है तो तब तब एक चुनौती उस राज्य की सरकार एवं सरकारी अधिकारियों के सामने होती है| भारत विश्व पटल पर धार्मिक आस्था की बहुलता वाले क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है तो विदेशी पर्यटक भी इन आयोजनों की तरफ आकर्षित होते हैं और सम्मिलित होने के लिए यहाँ आते हैं| यूँ तो हर शहर में आस्था से जुड़े आयोजन गाहे बगाहे होते रहते हैं लेकिन वृहद स्तर पर होने वाले आयोजनों में कुम्भ का नाम सबसे पहले आता है| कुम्भ आस्था का सागर है जिसमे डुबकी लगाने लाखों-करोड़ों श्रद्धालु एक ही जगह पर इकट्ठा होते हैं| ये बारह साल साल में एक बार होने वाला आयोजन है| ऐसे में भीड़ को सम्हालने में पसीने छूट जाना लाज़मी है| 2013 में इलाहाबाद में 55 दिन तक चले महाकुम्भ में लगभग 100 करोड़ लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी थी और उस कुम्भ के सबसे पवित्र दिन 10 फरवरी को लगभग 30 करोड़ लोगों ने एक साथ संगम में डुबकी लगायी थी| ज़ाहिर है कि इतने लोगों को सम्हालने के लिए कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज चाहिए होती है| वर्तमान में नासिक इस कुम्भ आयोजन का साक्षी बन रहा है लेकिन ये कुम्भ दूसरे धार्मिक आयोजनों और इससे पहले आयोजित हुए कुम्भ आयोजनों से अलग है| इस कुम्भ की सबसे खास बात है इसका भीड़ प्रबंधन का तरीका| कुम्भ में अक्सर भीड़ मेंरास्तों से जुडीऔर स्नान की तारीखों और समय से जुडी समस्याओं के लिए उसी भीड़ में से गुज़र कर राज्य सरकार और कुम्भ उच्चाधिकारियों द्वारा निर्धारित स्थानों पर पहुंचना होता है| ये एक तरह से भीड़ के अनियंत्रण का कारण भी बनता है और चूँकि कुम्भ में उपस्थित लगभग हर इन्सान विशेष मुहूर्त पर ही पुण्य अर्जित करने के लिए स्नान का लाभ लेना चाहता है ऐसे में भीड़ को सूचना देना बेहद मुश्किल हालत बना देता है| लेकिन वर्तमान समय में नासिक में हो रहे कुम्भ के आयोजन में ये मुश्किल थोड़ी सी आसान होती दिखती है| इस बार केवल कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि स्मार्टफोन इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं| विदेशों से आये पर्यटकों और स्थानीय लोगों को जानकारी देने का जरिया बना है स्मार्टफ़ोन और कुम्भ मेले के लिए विशेष रूप से बनाये गए एप्प्स| ये एप्स लोगों को कुम्भ के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्वशाही स्नान की तारीखआने जाने वाले रास्तेचिकित्सा सुविधाडॉक्टरदवा की उपलब्धता आदि से जुडी जानकारियां दे रहे हैं| स्मार्टफोन प्रयोग करने वालों के लिए ये एक वरदान जैसा है क्यूंकि एप्स की मदद से कम समय में और बिना भीड़ बढ़ाये सूचनाएँ दी जा सकेंगी जिससे लोग अपनी सहूलियत के अनुसार स्नान और कुम्भ में बाकी सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे| टेक्नोलॉजी के भरपूर प्रयोग के कारण इसे कुम्भाथौन” का नाम दिया गया है| इस कुम्भाथौन” को सफल बनाने के लिए देश और दुनियां भर के एप डेवलपरछात्रवैज्ञानिक 6 दिन के इस कुम्भ मेले में इकट्ठा हुए हैं| मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीबोस्टन से आई टीम के साथ सम्बद्ध होकर इन एप्स का विकास किया गया है| ऐसी लगभग पांच एप्स विकसित की गयी हैं और इन एप्स के प्रयोग को बढ़ावा देने किये कुम्भ नासिक प्रयाग कैंप में मुफ्त में वाई-फाई की सुविधा भी प्रदान की जा रही है यानि कि अगर किसी कारणवश आप अपने मोबाइल के डाटा पैक का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं तब भी आपको इन एप्स के प्रयोग से वंचित नहीं होना पड़ेगा| स्मार्टफोन के आने के साथ ही इन एप्स को बढ़ावा मिला| आजकल रोज़मर्रा के भी हर एक काम के लिए एक एप मौजूद है| ऐसे में तकनीक और आस्था का ये मेल बेजोड़ है| तकनीक के द्वारा आस्था के इस पवित्र स्नान को संबल देने की कोशिश की गयी है| यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है| इसी तरह कुम्भ के अलावा होने वाले दूसरे धार्मिक आयोजनों को भी एप्स और स्मार्टफोन से जोड़कर भीड़ प्रबंधन और भगदड़ जैसी समस्याओं से कुछ हद तक निजात पाई जा सकती है|

पांच वो एप जिन्होंने बनाया नासिक कुम्भ को एक सुहावना अनुभव
·         नासिक त्र्यम्बक कुम्भ
नेबुला स्टूडियोज द्वारा विकसित यह एप सरकार का कुम्भ मेला के लिए अधिकारिक एप है |यह न केवल सारी अध्यात्मिक सूचनाएं देता है बल्कि व्यवहारिक सूचनाएं भी उपलब्ध कराता है जैसे किन रास्तों से प्रवेश होना है,घाट कहाँ कहाँ स्थित हैं ,गाड़ियों को कहाँ खड़ा करना है |इसके अतिरिक्त यह एप यह भी बताता है कि आप को परिवहन के साधन कहाँ से मिलेंगे और पास में कहाँ ए टी एम् मशीन है |
·         मेडी ट्रैकर
मेडी ट्रैकर कम्पनी द्वारा बनाया गया यह एप अमेरिका की 911 सेवा की तर्ज पर काम करता है |यह एप आपातकालीन परिस्थितयों में न केवल अस्पतालों और मेडिकल स्टोर के बारे में दिशा देता है बल्कि इसमें शामिल एलर्ट बटन आपतकालीन परिस्थितयों में मेडिकल ऑफिसर को सन्देश भी देता है |
·         नासिक कुम्भ मेला गाईड 2015
माईंट्रैक सोफ्टवेयर द्वारा विकसित यह एप कुम्भ मेला के प्रतिदिन के शेड्यूल को बताता है मतलब मेले में किसी खास दिन क्या क्या होना है |यह तिथि के हिसाब से शाही स्नान और अन्य प्रमुख दिनों के बारे में लोगों को जानकारी देता है |कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा के हिसाब से अपने लिए महतवपूर्ण दिनों को चुन सकता है और उन पर अलार्म लगा सकता है |इस एप के माध्यम से प्रयोगकर्ता आपातकालीन नम्बरों का प्रयोग कर सकते हैं और खोये हुए व्यक्तियों के बारे में जानकारी भेज सकते हैं |इसके अलावा आप इस एप के माध्यम से रिपोर्ट भी दर्ज करा सकते हैं |
·         महाकुम्भ नासिक 2015
इम्पल्स टेक्नोलोजी द्वारा विकसित यह एप हिंदी मराठी और अंग्रजी भाषाओं में सूचना उपलब्ध कराता है |भारत जैसे बहुभाषी देश में यह एप बड़े कमाल का है |यह न केवल वायु ,रेल और सड़क परिवहन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है बल्कि यह शहर के ऑन लाइन और ऑफ लाइन मानचित्र भी उपलब्ध कराता है |नासिक शहर की सारी जानकारी इस एप में समाहित है |यह एप कुम्भ के सारे कर्मकांडों के बारे में भी सूचनाएं उपलब्ध कराता है |
·         इपिमैट्रिक्स
यह एक विशेषीकृत एप है जो सबके काम का नहीं है पर यह एप नासिक कुम्भ में सबसे महत्वपूर्ण एप है |यह एक तरह का आंकड़ा संग्रहण प्लेटफोर्म है विशेषकर डॉक्टर और अन्य  स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के लिए|किसी बीमारी को फैलने से बचाने जैसे प्रयासों में यह एप बहुत कारगर है |इसके अलावा स्वास्थ्य की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों की जानकारी यह  स्वास्थ्य सेवा कर्मियों को उपलब्ध कराता है जिससे स्वास्थ्य सेवाओं को तुरंत उस क्षेत्र विशेश् में पहुंचाया जा सके |
क्या है मोबाईल एप
धीरे-धीरे सारी दुनिया डिजिटल दुनिया में कन्वर्ट होती जा रही है। अब वह वक़्त भी आ गया है जब लोगों पर नियंत्रण पाने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाने लगा है। मोबाइल टेक्नोलॉजी के बढ़ते युग में,मोबाइल हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। एक समय हुआ करता था जब मोबाइल का इस्तेमाल सिर्फ कॉल करने के लिए ही किया जाता था पर अब मोबाइल को प्रयोग में लाने का दायरा बढ़ गया है। अब जिंदगी की छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए मोबाइल का ही सहारा लेना पड़ता है।इसका कारण इसमें इस्तेमाल किये जाने वाले एप्स हैं जिन्होंने हमारी जिंदगी को आसान बना दिया है।घर बैठे शॉपिंग,मोबाइल रिचार्जबिल जमा करनाजैसे कामों के लिए एप्स मदद करता है।बस एक टच और सारी जानकारियां आप तक पहुँच जाएंगी। मोबाइल एप का मतलब मोबाइल में मौजूद उन एप्लिकेशंस से हैं जो हमारा काम आसान कर देता है। इसके बाद हमें सर्च इंजन का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता और हम डाइरेक्ट उस वेबसाइट पर पहुँच सकते हैं जिस पर हम काम करना चाहते हैं। उदाहरण के तौर परयदि हमें कुम्भ के मेले से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त करनी है  तो पहले हम गूगल पर जाकर यूआरएल में टाइप करके तब पहुचेंगे पर यदि हमने नासिक कुम्भ का कोई  एप डाऊनलोड कर रखा है तो डाइरेक्ट सिर्फ एक टच से हम उस तक पहुँच सकते हैं। यह हमारा काम तो आसान करता ही है साथ हीसमय की बचत भी हो जाती है।हर क्षेत्र  के लोग अपनी  जरूरत के हिसाब से एप का इस्तेमाल करते हैं। बिजनेस करने वाला आदमी अपने जरुरी कॉन्टेक्ट्स मेंटेन करने के लिए एप का यूज करते हैंस्टूडेंट अपने सब्जेक्ट को लेकर जानकारी प्राप्त करने के लिए एप का इस्तेमाल करते हैं। बिजनेस में प्रॉफिट कमाने के लिए भी मोबाइल एप्स जरूरतमंद साबित हुए हैं।
तकनीक बन रही है कुम्भ प्रबंधन का नया हथियार
कुम्भ जैसे मेले में भीड़ का प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती है पर तकनीक के सार्थक इस्तेमाल से यह काम अब बड़ी आसानी से किया जा रहा है।आइये जानते हैं कि कैसे तकनीक को भीड़ प्रबंधन का नया हथियार बनाया जा रहा है।साथ ही अन्य तकनीकों के जरिये कुम्भ मेले को और बेहतर बनाने की कोशिश की जा रही है।नासिक में कुम्भ मेले के दौरान करीब 348 सीसीटीवी कैमरे लगाये गए हैं ताकि हर कोनों पर निगरानी रखी जा सके।कुम्भ के दौरान हजारों की संख्या में विदेशी टूरिस्ट्सभक्तों का तांता लगता है ऐसे में सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है।इसके लिए एप का इस्तेमाल किया जा रहा हैसाथ ही जीआईएस की मदद से मैप भी तैयार किये गए हैं जिसमें शिकायतों को आसानी से ट्रैक किया जा सके और लोगों तक मेडिकल फैसिलिटी जल्द से जल्द पहुंचाई जा सके। भीड़ प्रबंधन के अलावा भी कई मुद्दों पर काम किया जा रहा है। नो सेल्फ़ी अभियान भी चलाया गया।यह अभियान सेल्फ़ी के विरोध में जागरूकता के लिए चलाया जाएगा। कई बार ऐसा होता है जब स्टूडेंट्स साधुओं के साथ सेल्फ़ी लेकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपलोड कर देते हैं जिससे बाकियों का ध्यान भंग हो सकता हैकई बार फोन भी शाही स्नान के दौरान पानी में गिर सकता है।इन सब बातों के सहारे सेल्फ़ी के नुक्सान बताये जा रहे हैं। टेक्नोलॉजी के जरिये लोगों को जोड़ा जा रहा है। टेक्निकल के अलावा मेकैनिकल लेवल पर भी काम किया जा रहा है। इसके तहत बड़े बड़े आयल एक्सट्रैक्टर बनाये जा रहे हैं जिसमें  भक्तों द्वारा चढ़ाये जा रहे तेल को इकनोमिक कामों में इस्तेमाल किया जा सकता है। भीड़ प्रबंधन के लिए बाइक शेयरिंगकम्युनिटी रेडियो और एटीएम की भी व्यवस्था की जा रही है।
प्रभात खबर में 30/07/15 को प्रकशित लेख 

Friday, July 24, 2015

ऑनलाइन विज्ञापनों में छिपे खतरे

                            नया मीडिया अपना कारोबार व इश्तिहार भी बढ़ा रहा है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन और आईएमआरबी इंटरनेशनल के एक संयुक्त शोध के अनुसार, मार्च 2015 में भारत में ऑनलाइन विज्ञापन का बाजार 3,575 करोड़ रुपये का हो चुका है, जो 2014 के आंकड़े से करीब 30 प्रतिशत ज्यादा है। ऑनलाइन विज्ञापन की इस बढ़त में भारत में स्मार्ट फोन की बढ़ती संख्या का बड़ा योगदान है। लेकिन विज्ञापनों का यह बढ़ता बाजार अपने साथ समस्याएं भी ला रहा है। भारत जैसे देश में यह समस्या ज्यादा गंभीर इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां इंटरनेट का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है, मगर नेट जागरूकता की खासी कमी है। भारत में इंटरनेट के ज्यादातर प्रयोगकर्ताओं के लिए यह एक नई चीज है और वे कुछ चालाक विज्ञापनदाताओं की चाल का शिकार भी बन जाते हैं।भारत में विज्ञापनों का नियमन करने वाले संगठन भारतीय विज्ञापन मानक परिषद, यानी एएससीआई ने भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ शिकायत करने के लिए बाकायदा एक व्यवस्था बना रखी है। लेकिन इंटरनेट अन्य विज्ञापन माध्यमों जैसा नहीं है। इंटरनेट के विज्ञापनों पर नजर रखना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम है, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि भ्रामक विज्ञापन का शिकार बनने वाला भारत के किसी शहर में हो, जबकि विज्ञापनदाता सात समंुदर पार किसी दूसरे देश में। प्रिंट माध्यम के लिए तो इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी जैसी संस्था है, जो विज्ञापन एजेंसी को मान्यता देती है और किसी शिकायत पर वह  मान्यता खत्म भी कर सकती है।
                                  इंटरनेट के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
दूसरा पहलू डाटा के उपभोग से जुड़ा है। इंटरनेट पर जब भी कोई काम किया जाता है, तो कुछ डाटा खर्च होता है, जिसका शुल्क इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां वसूलती हैं, पर किसी-किसी  वेबसाइट पर जाते ही उपभोक्ता से बगैर पूछे अचानक कोई वीडियो चलने लगता है, तो काम भी बाधित होता है और उपभोक्ता का कुछ अतिरिक्त डाटा भी खर्च होता है, जिसके पैसे तो उससे वसूल लिए जाते हैं, पर उस विज्ञापन को देखने या सुनाने के लिए उससे अनुमति नहीं ली जाती है। यू-ट्यूब के वीडियो में शुरुआती कुछ सेकंड आपको मजबूरी में देखने पड़ते हैं, जिसमें आपका अतिरिक्त डाटा खर्च होगा। निजता का मामला भी इसी से जुड़ा मुद्दा है। हम क्या करते हैं इंटरनेट पर, क्या खोजते हैं, इन सबकी जानकारी के हिसाब से हमें विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अमेरिका की चर्चित संस्था नेटवर्क एडवर्टाइजिंग इनिशिएटिव (एनआईए) ने ऐसे मामलों के लिए भी संहिता बनाकर कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे उपभोक्ताओं को ऐसे विज्ञापनों को न देखने का विकल्प भी उपलब्ध कराएं। निजता की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। भारत में इंटरनेट का बाजार अभी आकार ले रहा है, इसलिए सतर्कता बरतने का यह सबसे सही समय है।
हिन्दुस्तान में 24/07/15 को प्रकाशित 

Tuesday, July 21, 2015

लेह में सिनेमा

लेह (लद्दाख ) भारत का प्रमुख पर्यटक स्थल है |इसकी खूबसूरती को हिन्दी की कई फिल्मों में उतारा गया है वो चाहे जब तक है जानहो या थ्री ईडियट”| पर्यटक जब लेह लद्दाख  घूमने आते हैं  तो फिल्मों की शूटिंग की जगहों पर बड़े चाव से जाते हैं |थ्री ईडियट की शूटिंग यहाँ के ड्रुक व्हाईट लोटस स्कूल में हुई थी जिसे अब रैंचो स्कूल के नाम से पूरे लेह में जाना जाता है|पैन्गोंग झील को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने का श्रेय भी थ्री ईडियट फिल्म को ही जाता है इस फिल्म की शूटिंग के बात यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या में खासी बढ़ोत्तरी हुई है| पर अगर किसी पर्यटक की तरह आपका मन इन फिल्मों को लेह में देखने का मन करे तो आपको निराशा हाथ लगेगी क्योंकि लेह में कोई सिनेमा हाल है ही नहीं|
सिनेमा हाल 
दशकों पहले दर्शकों की कमी के चलते लेह का एकमात्र सिनेमा हाल बंद हो गया था और यहाँ की एक पूरी पीढी सिनेमा हाल में फिल्म  देखे ही बड़ी हो गयी |कश्मीर घाटी में जहाँ सिनेमा हाल बंद होने का कारण राजनैतिक और कट्टरपंथियों का हस्तक्षेप था वहीं लेह लद्दाख में सिनेमा हाल का बंद हो जाना पूरी तरह सामाजिक|यहाँ सिनेमा को हॉल में देखने का चलन नहीं रहा जब जिले का एकमात्र सिनेमा हाल था भी तो वहां नयी फ़िल्में कभी नहीं लगती थीं,उन पुरानी फिल्मों को देखने जाने वालों में ज्यादातर वे बिहारी और नेपाली मजदूर रहा करते थे जो रोजी रोटी की तलाश में यहाँ आया करते हैं|ऐसे में यहाँ फिल्म देखने की कोई संस्कृति विकसित नहीं हो पायी|उदारीकरण के रंग में अब लेह भी रंगने लग गया है और लोगों को मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल की कमी खलती है|जहाँ लेह लद्दाख की खूबसूरती को बड़े देखा जा सके |पर अब स्थिति में थोडा बदलाव आता दिख रहा है |
फिल्म देखते बच्चे 
फिल्मों के शौक़ीन और पूर्व में पत्रकारिता एवं जनसंचार के प्रोफ़ेसर रहे लेह के जिलाधिकारी सौगत बिस्वास ने जब बीती फरवरी में यहाँ का कार्यभार ग्रहण किया तो लेह में कोई सिनेमा हाल न होने से बहुत निराश हुए उन्होंने जब शहर के लोगों से बात की तो पता चला कि यहाँ के लोग सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्में देखने के शौक़ीन नहीं हैं चूँकि कोई बाजार है नहीं इसलिए कोई सिनेमा हाल या मल्टीप्लेक्स के इस व्यवसाय में निवेश नहीं करना चाहता|इस नवनियुक्त जिलाधिकारी ने अपने पुराने ज्ञान का प्रयोग करते हुए एक  अभिनव कदम उठाने की शुरुआत कर दी|उन्होंने लेह के एक कभी कभार प्रयोग होने वाले सभागार को एक छोटे सिनेमा हाल में बदल दिया और शहर के सभी सरकारी और निजी स्कूलों के लिए हफ्ते के  हर शनिवार हिन्दी,अंग्रेजी की फ़िल्में और वृत्तचित्र बच्चों को सिनेमा हॉल के अनुभव के साथ मुफ्त में  दिखाना शुरू किया  और जिला प्रशासन ने सरकारी स्कूलों के  बच्चों के सभागार तक आने के लिए वाहन भी मुफ्त उपलब्ध कराये | लैमडॉन मोडल सीनियर सैकेंडरी स्कूल के प्रिंसिपल एशे तुन्दुप कहते है सिनेमा बच्चों की जरुरत के हिसाब से दिखाया जा रहा है वो जोर देकर कहते हैं पीएसबीटी के द्वारा बनाये गए वृत्तचित्र जो बनने के बाद सिर्फ अकादमिक जगत के बीच ही रह जाते थे आज उन्हें लेह के लोग देख रहे हैं|
जिलाधिकारी सौगत बिस्वास 
लेह-लद्दाख  के ऊपर कई शानदार वृत्तचित्र बने हैं पर यहाँ के लोग उनके बारे में जानते ही नहीं थे
|लेह के ये बच्चे भाग्यशाली हैं जो सिनेमा हॉल में फ़िल्में देख रहे हैं |इन फिल्मों से वे सिनेमा के माध्यम के साथ साथ ये लद्दाख की संस्कृति के बारे में परिचित हो रहे हैं | लैमडॉन में ही पढने वाली दसवीं की छात्रा सोनम फिल्म देखने के अनुभव के बारे में कहती हैं सिनेमा कैसा होता है इसका आइडिया पहली बार लगा |स्तेंजिन को शिकायत है कि फिल्म पहली बार देखी पर पोपकोर्न नहीं मिला |लेह गवर्नमेंट गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल की ज़ाहिरा के लिए डाक्यूमेंट्री हॉल में देखने का अनुभव बहुत मजेदार रहा और रोज की बोरिंग लाईफ से मुक्ति मिली |इसी स्कूल की छात्रा शहर को उम्मीद है कि इस तरह के प्रयासों से एक दिन लेह में फिर से सिनेमा हॉल खुलेगा |
जिलाधिकारी सौगत बिस्वास का मानना है कि उनके इस प्रयास से सिनेमा देखने की संस्कृति विकसित होगी और ये बच्चे जो आज मुफ्त में फ़िल्में देख रहे हैं बड़े होकर फिल्मों पर पैसा खर्च करने से नहीं हिचकेंगे वहीं अभी फिल्मों से इनका एक्सपोजर बढेगा और दिमाग का विस्तार होगा |
बहरहाल हम तो यही उम्मीद करेंगे की सौगत बिस्वास के प्रयासों से यहाँ के लोग भी कभी  बड़े परदे पर लदाख की खूबसूरती को देख पायेंगे | अब शहर के बच्चे उन्हें फिल्म वाले अंकल कहने लग गए हैं |
जनसत्ता में 21/07/15को प्रकाशित 



ताकि इस कारोबार को रफ़्तार मिले

भारत में डायरेक्ट सेलिंग की शुरुवात अस्सी के दशक में हुई ,नब्बे के दशक में एमवे,ओरिफ्लेम,एवन जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन से यह परिद्रश्य बदल गया,उसी वक्त मोदीकेयर जैसी भारतीय कम्पनी ने भी वस्तु वितरण व्यसाय के इस नए क्षेत्र में कदम रखा| डायरेक्ट सेलिंग से तात्पर्य ऐसे व्यवसाय से है जिसमें उत्पादक सीधे अपने उत्पाद को ग्राहकों तक खुद या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से पहुंचाता है| फिक्की की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस समय भारत में 7,200 करोड़ रुपये मूल्य के हेल्थकेयर से जुडी वस्तुओं ,कॉस्मेटिक्स और  घरेलू वस्तुओं का कारोबार प्रतिवर्ष होता है |इन कम्पनियों में विक्रेता या वितरक दो तरह से लाभ अर्जित करते हैं एक तो वे जो सामान खुद बेचते हैं उस पर कमीशन मिलता है |दूसरा वे जिन लोगों को सामान बेचने के लिए भारती करते हैं उनके बेचे गए सामान के कमीशन में भी हिस्सा मिलता है |नब्बे के दशक से साल 2010-11 आते –आते डायरेक्ट सेलिंग का यह कारोबार 27 प्रतिशत की वृधी दर से बाधा लेकिन उचित नियम कानून के अभाव में इसकी वृधि दर घटकर 4.3 प्रतिशत रह गयी |इसकी जड़ में प्राईज चिट्स एंड मनी सर्कुलेशन स्कीम्स अधिनियम (पी सी एम् सी एक्ट 1978) चूँकि अभी देश में डायरेक्ट सेलिंग कारोबार के लिए स्पष्ट नियम नहीं हैं इसका फायदा उठा कर फर्जी चिटफंड कम्पनियां डायरेक्ट सेलिंग कारोबार के वैध मॉडल की नक़ल करती हैं |वो चाहे पश्चिम बंगाल का शारदा घोटाला हो या स्पीक एशिया और जापान लाईफ जैसी योजनायें हों जो नक़ल तो डायरेक्ट सेलिंग कारोबार की कर रही थीं पर उनके पीछे न तो पूंजी का आधार था और न ही गुणवत्ता आधारित उत्पाद , डायरेक्ट सेलिंग कम्पनियां जहाँ अपने उत्पाद बेचने पर जोर देती हैं वहीं फर्जी चिट फंड कम्पनियां पिरामिड स्कीम में सारा दबाव नए निवेशक जुटाने पर होता है|जागरूकता की कमी और स्पष्ट दिशा निर्देश के न होने से आम उपभोक्ता ठगी का शिकार हो जाता है वैसे भी पुलिस और सरकार तब तक कोई कार्यवाही नहीं करते जब तक कोई धोखा धड़ी न हो |ऐसी स्थिति का फायदा उठाने वालों के हौसले बुलंद होते हैं और डायरेक्ट सेलिंग के कारोबार में लगी सारी कम्पनियों को भी शक की नजर से देखा जाता है|दुनिया के अन्य देशों में डायरेक्ट सेलिंग के लिए स्पष्ट कानून हैं अमेरिका के राज्यों में अलग डायरेक्ट सेलिंग के लिए अलग से नियम हैं |सिंगापुर के कानून में ऐसी किसी भी योजना को अवैध माना जाता है जिसमें प्रवेश शुल्क लगता हो ,चीन में भी इसके लिए कानून हैं |भारत में डायरेक्ट सेलिंग कम्पनिया उपभोक्ता मंत्रालय द्वारा शासित हैं या खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय द्वारा यह स्पष्ट नहीं है |
               दुनिया भर में 60 देशों की डायरेक्ट सेलिंग कंपनियों की प्रतिनिधि वर्ल्ड  फेडरेशन ने इस व्यवसाय  में मानक ढांचा तैयार करने के लिए वर्ल्ड सेलिंग कोड ऑफ कंडक्ट यानी आचार संहिता जारी की है| इससे इस उद्योग के अपने नियम-कानून बनाने की दिशा में पहल हो सकती है|ऐसा नहीं है कि डायरेक्ट सेलिंग कम्पनियों को नुक्सान सिर्फ पिरामिड आधरित फर्जी कम्पनियों ने पहुँचाया है |कुछ और भी मुद्दे हैं जिन पर ध्यान दिया जाना जरुरी है जैसे स्वास्थ्य आधारित उत्पाद प्रमाणित हैं या नहीं दवा जैसे उत्पाद बेचने का काम फार्मासिस्ट का है फिर ये कम्पनियां किस कानून के आधार पर स्वास्थ्य संबंधी दावे करती हैं |इनको बेचने वाले लोग ज्यादातर अपने दोस्त रिश्तेदारों को निशाना बनाते हैं |उनका जोर उत्पाद की गुणवत्ता को प्रचारित करने की बजाय सम्बन्धों को भुनाने पर रहता है| इस स्थिति में नए लोग डायरेक्ट सेलिंग कम्पनी के उत्पादों से आसानी से नहीं जुड़ते हैं |
पिछली यूपीए सरकार ने बहुसत्रीय मार्केटिंग और डायरेक्ट सेलिंग की परिभाषा तय करने के लिए एक समिति बनाई थी पर कुछ उल्लेखनीय नहीं हुआ |वर्तमान में उपभोक्ता कार्य मंत्रालय की अध्यक्षता में एक समिति इस मामले पर विचार कर रही है कि इस व्यवसाय  के लिए अलग नियामक होना  चाहिए या नहीं | इस समिति का निर्णय आने के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि भारत में इस व्वयसाय का भविष्य क्या होगा |व्यवसाय के नजरिये या पर्याप्त क्षमता वाला व्यवसाय है भारत में साठ  लाख लोग डायरेक्ट सेलिंग के इस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं जिसमें साठ प्रतिशत महिलाएं हैं |के पी एम् जी  की एक रिपोर्ट के अनुसार वित्त  वर्ष 2012-13 में देश में 34 लाख महिलाओं को रोज़गार मिला |यह रोजगार के अवसर बढाने के साथ –साथ देश की आधी आबादी (महिलाओं ) को भी संगठित करने के साथ –साथ समर्थ और जागरूक भी कर रहा है जिससे वे देश की जीडीपी में अपना योगदान दे पा रही हैं |
अमर उजाला में 21/07/15 को  प्रकाशित लेख 

एक कहानी वर्चुअल दुनिया की

उधर तुम चैट पर जल रही होती हो कभी हरी तो कभी पीली और इधर वो तो बस लाल ही होता हैएप्प्स के बीच में फंसी जिन्दगी वो जाना भी नहीं चाहता था और जताना भी नहीं वो जितने एप्स डाउनलोड करता वो उतना ही दूर जा रही थी अब मामला बत्तियों के हरे और लाल होने का नहीं था अब मसला जवाब मिलने और उसके लगातार ऑन लाइन रहने के बीच के फासले का था.वो उसे अक्सर उसे पोक करता वो चुपचाप उस पोक मेसेज को डीलीट कर देती.स्मार्ट फोन की कहानी और उसकी कहानी के बीच एक नई कहानी पैदा हो रही थी,वो कहानी जो जी चैट की हरी लाल होती बत्तियों के बीच शुरू हुई और फेसबुक के लाईक,कमेन्ट में फलते फूलते स्मार्ट फोन के चैटिंग एप्स के बीच कहीं दम तोड़ रही थी. एक प्यारी सी लडकी जो अपने सस्ते से फोन में खुश रहा करती थी.उसकी उम्मीदों को पंख तब लगे ,जब उसने ,उसे एक स्मार्ट फोन गिफ्ट किया. लैपटौप की चैट से वो उब चुका था.वो तो चौबीस घंटे उससे कनेक्टेड रहना चाहता था.वैसे भी एक फोन ही था जिसे वो हमेशा अपने पास रखती थी. वो जीवन भर की  खुशियों को उसके  साथ टैग करना चाहता था जिससे उसके चेहरे की मुस्कराहट का खुशियों के साथ हैंग आउट जारी रहे.फिर उसका भी मानना था आदमी की स्मार्टनेस स्मार्टफोन से बढ़ती है.वो उसे महंगे गिफ्ट देने से डर रहा था.पता नहीं वो लेगी भी कि नहीं अगर उसे बुरा लग गया.इसी उधेड़ बुन में न जाने कितने दिन बीत गये.फोन पर वो हमेशा उससे अपने फ्यूचर ड्रीम्स  के बारे में बात किया करती थी.उसे सबसे ज्यादा अच्छा तब लगता जब वो पूछता मुझे छोड़ कर तो नहीं चली जाओगी और वो जवाब देती नहीं ,कभी नहीं.उसने अब तो फेसबुक पर अपना रिलेशनशिप स्टेट्स कमीटेड कर दिया था.ये वर्च्युल इश्क रीयल भी हो पायेगा वो अक्सर सोचा करता.दोनों में कितना अंतर था .वो एकदम सीधा सादा नीरस सा लड़का था और वो जिन्दगी से भरी हुई लडकी जो चीजों से जल्दी बोर हो जाती थी |उसके पास स्मार्ट के नाम पर मात्र एक फोन था जबकि वो अपने छोटे से पुराने फोन से चिपकी थी पर दिलों पर राज़ करने का हुनर उसे खूब आता था.आखिर उसने हिम्मत करके उसको ऑनलाइन एक फोन गिफ्ट कर ही दिया .फोन जैसे ही उसे मिला उसका एफबी स्टेटस अपडेट हुआ|गौट न्यू फोन फ्रॉम सम वन स्पेशल ,और वो कहीं दूर बैठा उसके स्टेटस पर आने वाले कमेंट्स और लाईक को देख देख कर खुश हो रहा था.
अब उसके पास भी स्मार्ट फोन था.उसे यकीन था अब दोनों चौबीस घंटे कनेक्टेड रहेंगे.हमेशा के लिए. अब बार -बार  कम्प्यूटर खोल कर उसे अपने एफबी मेसेज नहीं देखने पड़ेंगे.पर अब वो  व्हाट्स एप पर लम्बे –लम्बे मेसेज नहीं लिखती थी जैसा पहले एस एम् एस में किया करती थी .
  उसने स्माईली का यूज  करना शुरू कर दियापर दिल की भावनाओं को चंद चिह्नों में समेटा जा सकता है क्या ? रीयल अब वर्चुअल हो चला था .दो चार स्माईली के बीच सिमटता रिश्ता वो कहता नहीं था और उसके पास सुनने का वक्त नहीं थाएप्स की दीवानी जो ठहरी , सब कुछ मशीनी हो रहा था|सुबह गुडमार्निंग का रूटीन सा एफ बी मैसेज और शाम को गुडनाईट दिन भर हरी और पीली होती हुई चैट की बत्तियों के बीच कोई जल रहा था तो कोई बुझता सा जा रहा था|काश तुम टाईम लाइन रिवियू होते जब चाहता अनटैग कर देता है अक्सर वो सोचता .वो तो हार ही रहा था पर वो भी क्या जीत रही थीकुछ सवाल जो चमक रहे थे चैट पर जलने वाली बत्ती की तरह रिश्ते मैगी नहीं होते कि दो मिनट में तैयार ,ये सॉरी और थैंक यू से नहीं बहलते इनको एहसास चाहिए जो व्हाट्स एप और हाईक जैसे एप्स नहीं देते उसे आगे जाना था पर ये तो पीछे जाना चाहता था जब रीयल पर वर्चुअल हावी नहीं था क्या इस रिश्ते को साइन आउट करने का वक्त आ गया था या ये सब रीयल नहीं महज वर्चुअल थावो हमेशा इनविजिबल रहा करता था वर्चुअल रियल्टी की तरह जहाँ हैवहाँ है नहींजहाँ नहीं हैवहां हो भी नहीं सकता वो जी टॉक पर इनविजिबल ही आया था और इनविजिबल ही विदा किया जा रहा था शायद ब्लॉक होना उसकी नियति है.अब वो जवाब नहीं देती थी और जो जवाब आते उनमे जवाब से ज्यादा सवाल खड़े होते. चैट की बत्तियाँ उसके लिए बंद की जा चुकी थी इशारा साफ़ था अब उसे जाना होगा साइन आउट करने का वक्त चुका था. वर्चुअल रीयल नहीं हो सकता सबक दिया जा चुका था . जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है पीछे लौटने का नहीं.
आई नेक्स्ट में 21/07/15 को प्रकाशित 

Saturday, July 18, 2015

बर्फीले मरुस्थल में कुछ देर

जुलेआपका कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट पर पर स्वागत है जुले  वो शब्द था जो लेह की यात्रा के दौरान बार बार सुनाई दिया जुले का लद्दाखी में मतलब होता है हेलो . लेह की यात्रा महज  एक यात्रा नही थी बल्कि एक दोस्त से मुलाक़ात का बहाना था. सौगत, हाँ यही नाम है मेरे दोस्त का जो मुझे एक अरसे से अपने पास लद्दाख बुला रहा था. मैं कुछ निर्णय नहीं ले पा रहा था, आज कल, आज कल ये सब करते करते बहुत सा समय बीत गया और हवाई जहाज के टिकट आसमान छूने लग गये. आखिरकार मैंने फैसला किया कि मुझे लद्दाख जाना ही है |लखनऊ से दिल्ली ट्रेन द्वारा और दिल्ली से हमारी उड़ान थी जो हमें लेह पहुंचाने वाली थी .
हम अभी उड़े ही थे कि मैं नींद के झूले में झूलने लगा. शायद आधा घंटा ही मैं सोया हूँगा कि विमान के लेह के कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट पर लैंडिंग की घोषणा होने लगी . मैंने हडबडा कर खिड़की के बाहर झाँका चारों तरफ बर्फ से लदे पहाड़. एक तरफ हिमालय और दूसरी तरफ काराकोरम, स्याह सफ़ेद का अद्भुत समागम. आधे पहाड़ों पर बर्फ नहीं थी और आधे बर्फ से भरे हुए. प्रकृति का अद्भुत नजारा. ऐसी लग रही था जैसे कागज़ पर किसी ने थ्री डी रूप मे पेन्सिल से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच दी गयी हों. मैंने अपने सामान को समेटना शुरू कर दिया. विमान धीरे धीरे नीचे आ रहा था, बर्फ वाले पहाड़ पीछे छूट रहे थे और चारों तरफ भूरे काले वीरान पहाड़ों के बीच से हमारा विमान धीरे धीरे नीचे आ रहा था. मैं किसी छोटे बच्चे की तरह सारे द्रश्य को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता था. अहा लद्दाख आखिर मैं आ ही गया तुमसे मिलने. हिमालय और काराकोरम पर्वत श्रृंखला के मध्य विश्व की छत के रूप में स्थित लद्दाखभारत को प्रकृति का सबसे खूबसूरत तोहफ़ा है। पाषाण युग की ऐतिहासिकता समेटे लद्दाख के भीतर इतिहास और संस्कृति की कई पर्तें दबी हुई हैं। । भारत के बर्फीले मरुस्थल के विषय में मैंने बहुत पढ़ा-सुना था,

मैं आया था अपने दोस्त से मिलने जिससे मिलने के लिए मैं लम्बे समय से तरस रहा था. सौगत लद्दाख जिला प्रशासन के मुखिया है, जो अपनी मीटिंग के सिलसिले में श्रीनगर में थे और वह तीन जून को वापस लौट रहे थे और आज एक जून की सुबह थी. जैसे ही जहाज ने जमीन छुई मैंने सौगत को संदेसा भेजा लैंडेड और उधर से तुरंत जवाब आया स्वागत है.
हम विमान से बाहर निकले पर यह क्या लेह का  कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट भारत के अन्य एयरपोर्ट की तरह नहीं था. चारों तरफ बंकर और सेना के जवान, मुझे बताया गया कि यह सेना के द्वारा बनाया गया विमान पत्तन है जिसमें दो पट्टियाँ हैं. एक का इस्तेमाल सेना करती है जबकि दूसरी पट्टी का इस्तेमाल व्यवसायिक विमानों के लिए होता है. मेरा मन सेना के विमान और हेलीकॉप्टर की तरह उड़ान भर रहा था.
लेह लगभग साढ़े ग्यारह हजार फीट की उंचाई पर स्थित है, अब तक मेरी सारी दुनिया में की गयी यात्राओं में सबसे उंचाई पर की गयी यात्रा. विमान पत्तन पर लगातार घोषणा की जा रही थी, ‘’यहाँ ऑक्सीजन की कमी है, मैदानी इलाकों से आये लोगों को यहाँ सांस लेने में, सर दर्द और जी मिचलाने जैसी दिक्कत हो सकती है. चौबीस घंटे सिर्फ आराम करें कहीं घूमने न जाएँ, ढेर सारा पानी पीयें, दौड़ें नहीं और किसी तरह की समस्या में तुरंत डॉक्टर से मिलें अन्यथा समस्या गंभीर हो सकती है.’’ हम अपना सामान लेकर एयरपोर्ट से बाहर निकले वहां दो लोग मेरे नाम की तख्ती लेकर इन्तजार करते मिलेउनमें से एक लेह प्रशासन के अधिकारी थे और दूसरे मियां नजीर जो अगले दस दिन में हमे लद्दाख से परचित कराने वाले थे.दो दिन पूरी तरह आराम करने के बाद
तीन तारीख को हम घूमने के लिए तैयार थे बस सौगत का इन्तजार था उनकी फ्लाईट दस बजे आनी थी.सौगत एयरपोर्ट से सीधे गेस्ट हाउस आये और पूरे एक साल बाद हम लोगों का मिलन हुआसौगत के भी कुछ बाल झड गये थे पर फिर भी मुझसे बेहतर स्थिति में थे.उनसे मिल कर  हम चल पड़े  लेह से करीब पैंतालीस किलोमीटर दूर हीमिंस गोम्पा के लिए | गोम्पा या मोनेस्ट्री दूर पहाड़ों की गोद में बौद्ध लामाओं के अध्ययन अध्यापन के लिए बनाये जाते थे. हम लेह के ग्रामीण इलाकों की ओर बढ़ चले थोड़ी दूर सीधे रास्ते के बाद गाडी ने गोल गोल घूमना शुरू कर दियाजैसे कोई परकार से गोले पर रेखाएं खींच रहा हो ऐसे ही रास्ते थे.पहाड़ वीरान थे तलहटी में कहीं कहीं खेती होती दिख रही थीपहाड़ों की वीरानी तोड़ने वाली दो ही चीजें थी पहला सेना के द्वारा अपनी बटालियन के बनाये गए उद्घोष वाक्य जो पहाड़ों पर जगहजगह लिखे गए थे और हमारे साथ साथ बहती पुरातन सिन्धु नदी की कल कल ध्वनि . सिन्धु नदी का जिक्र अभी तक इतिहास की किताबों में ही सुना था. पहली बार साक्षात अपनी आँखों से देखना किसी आश्चर्य से कम नही था. सिन्धु को देखकर मन थोडा भावुक हो रहा था. सिन्धु ही वह नदी है जिसके आसपास भारत में सभ्यता की शुरुवात हुई,हमारे पूर्वजों  की नदी, हमारी नदी. लेकिन अब इस नदी का तीन चौथाई हिस्सा पकिस्तान में बहता है. मैंने सिन्धु को जल हाथ में लिया यह मेरा अपना तरीका था सिन्धु से हाथ मिलाने का उसे शुक्रिया कहने का.
गोम्पा दूर से ही दिखाई पड़ता है भव्य एवं खुबसूरत. कुछ सीढियां चढ़कर हम गोम्पा के भीतर थे, सामने थी बुद्ध की विशाल प्रतिमा. यह लामाओं की एक पुरी दुनिया है जहाँ उनके काम की सारे चीजें मौजूद हैं, इसलिए बाहरी दुनिया से जुड़ाव की उनको कोई जरुरत ही नही. सुबह शाम प्रार्थना और बाकी के वक्त में पठन पाठन.मैं मंदिर के चढ़ावे पर ध्यान देने लगा, माजा की बोतल, सोयाबीन के तेल की बोतलें, डिब्बाबंद दूध, डिब्बाबंद जूस और न जाने क्या क्या, और तो और जीरो कोक के कई केन भी चढ़े थे. मैंने वहां के पुजारी से पूछा हिन्दू मंदिरों में जो चढ़ावा चढ़ता है वो तो पुजारी का हो जाता है |यहाँ के चढ़ावे का क्या होता है उसने पानी टूटी फूटी हिंदी में बताया कि यह सब भक्तों का है जो मंदिर में आते हैं यह उनका है आप जो चाहें इसमें से ले सकते हैं.
शाम होने को आ रही थी और अभी हमें एक महत्वपूर्ण जगह जाना थाजी हाँ रैंचो के स्कूल, वही स्कूल जहाँ थ्री ईडियट फिल्म की शूटिंग हुई थी. जहाँ रैंचो सब कुछ छोड़ छाड़कर रह रहा थास्कूल में घूमने का अनुभव निराला था. पर्यटकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए अब स्कूल की कुछ जगहों पर ही घुमाया जाता है क्योंकि बच्चों की पढ़ाई में बाधा आती है. शाम के सात बज रहे थे फिर भी रौशनी ठीक ठाक थी |हवा में ठंडक बढ़ रही थी और हम थके मांदे लौट रहे थे.
अगले दिन हमारा कार्यक्रम आल्ची मोनेस्ट्री देखने जाने का था, जो लेह से करीब 65  किलोमीटर दूर हैएक बार फिर हम रास्ते में थे. रास्ते में जांसकर नदी हमारे साथसाथ बह रही थीखुबसूरत मीलों लम्बी सड़क जिस पर बाईक सवार यदा कदा दिख जाते. ये वो लोग हैं जो मनाली या श्रीनगर से सड़क के रास्ते लद्दाख की खूबसूरती देखने आते हैं और ये सभी मोटरसाइकिल किराए पर मिलती हैं. चूँकि रास्ते में पेट्रोल पम्प बहुत कम हैं इसलिए सभी की बाईक के पीछे पेट्रोल से भरे केन जरुर दिखते हैंआमतौर पर किसी पहाडी इलाके में हरे भरे पहाड़ दीखते हैं पर लद्दाख अलग है. यहाँ पहाड़ इतनी ज्यादा उंचाई पर हैं कि ऑक्सीजन की कमी के कारण कुछ नहीं उगता यानि स्याह सफ़ेद पहाड़ और इन पहाड़ों के बीच खड़ा मैं अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा थासच है लद्दाख में तन मन एकाकार हो जाते हैंसामने के पहाड़ सूने नंगे थे पर पीछे के पहाड़ों पर खासी बर्फ गिरी हुई थीसूरज अपनी तेजी से चमक रहा थाऐसा मेरे साथ अक्सर होता है जब मैं सुख की घड़ी में तटस्थ हो जाता हूँ राग द्वेष से परे सुख दुःख से मुक्त, बस मैं होता हूँ. ऐसा ही कुछ यहाँ महसूस कर रहा थालगता था घड़ियाँ रुक गयी हैं और मैंने समय के चक्र को उन पहाड़ों पर  रोक लिया थामेरी तटस्थता को नजीर की आवाज ने तोडा, ‘’सर चला जाए.’’ हाँ, चलना ही तो है, तभी तो यहाँ तक आ पहुंचे हैं, अभी कितनी दूर जाना है पता नहींआल्ची मोनेस्ट्री बाकी की सारी मोनेस्ट्री की ही तरह है, बस इसे पुरातत्व विभाग का संरक्षण हासिल है. बौद्ध मन्त्र लिखी हुई झंडियाँ बुद्ध की मूर्तियाँ और दीवारों पर बुद्ध के विभिन्न अवतारों वाले भित्ति चित्र, जो पर्याप्त संरक्षण के अभाव में खराब हो रहे हैंकुछ भी हो हमें अपनी विरासत सम्हालना नहीं आयाइसके लिए भी हमें यूरोप या अमेरिका से सीखना चाहिए. हमने वहां बने आल्चीको बाँध को भी देखा. हालाकी बाँध की फोटो खीचना मना  था लेकिन मुझे बाँध के एक मॉडल की फोटो लेने की इजाजत मिल गयी  उस मॉडल के पास एक कौतुहल मेरा इन्तजार कर रहा था. उस मॉडल के पास एक छोटा सा मंदिर बना हुआ था, जहाँ तरह तरह के भगवान् सजे थे.आश्चर्य किन्तु सत्य कारण में भरोसा रखने वाला विज्ञान भी भगवान भरोसे था.
थिकसे मोनेस्ट्री ,शे पैलेस और लेह का राजमहल तीनो देखने वाली जगहें हैं और हमने यहाँ भरपूर समय बिताया .
अगले दिन  सुबह-सुबह विश्वप्रसिद्ध पेंगोंग झील देखने जाना था. पेंगोंग लेह से लगभग 150 किलोमीटर दूर है और रास्ता बहुत ही खतरनाक है. यात्रा शुरू होने के साथ ही साथ धीरे धीरे उंचाई बढनी शुरू हो गयी और पहाड़ जो अभी तक वीरान दिख रहे थे उन पर बर्फ की चादर दिखनी शुरू हो गयी. जैसेजैसे हम आगे बढ़ते गये बर्फ की परत मोटी होती गयी, बीच बीच में हमें जमे हुए तालाब और नाले दिख रहे थे. गर्मी का मौसम था और बर्फ पिघल भी रही थी पर बहुत धीरे धीरे. पूरा रास्ता ऐसा ही है जब उंचाई बढ़ती तो पहाड़ सफ़ेद हो जाते जैसे ही उंचाई घटती पहाड़ का रंग बदल जाता, इतने रंगीन पहाड़ सिर्फ लद्दाख में ही देखे जा सकते हैं. याक के भी दर्शन बीच बीच में हो रहे थे जो यहाँ वहां हल्की जमी हुई घास जैसी चीज चर रहे थे. तस्वीरें तो पेंगोंग की पहले भी देखी थीं पर यथार्थ में यह उससे ज्यादा खुबसूरत थी. देर शाम लेह वापस पहुँचने पर बिस्तर पर ऐसे गिरे की सुबह ही आँख खुली |
अब बारी नुब्रा घाटी देखने की थी जहाँ हमें एक रात रुकना भी था . एक बार फिर सामान बाँधा गया और हम नुब्रा घाटी के गाँव हुन्डर के ऑरगेनिक रिसोर्ट चल पड़े |अभी कुछ किलोमीटर ही चले होंगे कि सारा नजारा बदल गया |एक छोटा मोटा पहाडी रेगिस्तान हमारे सामने था |नजीर ने हमें बताया कि यहीं अभी हमें कैमल राईड करनी है यनि ऊंट की सवारी वो भी ऐसे ऊँटों पर जो सारे भारत में यहीं पायें जाते हैं यनी डबल हम्प्ड कैमल दो कूबड़ वाले ऊंट ,यह नुब्रा की खासियत थी |हरियाली बढ़ रही थी पर यह हरियाली उन कांटेदार झाड़ियों की थी जो नुब्रा के इस रेगिस्तान में ही पायी जाती हैं | हमारा अगला पड़ाव डिसकिट से सख्लर होते हुए पनामिक हॉट वाटर स्प्रिंग था जहाँ सोते से गर्म पानी निकलता है. अब हम वापस लेह लौट रहे थे. आधे रास्ते तक श्योक नदी हमारे साथ साथ चलती रही. मेरे लिए नदी समय काटने का अच्छा जरिया बनी. मैं उसकी धारा देखते और न जाने क्या क्या सोचते हुए अपना सफर तय करता रहा. प्रक्रति दोनों हाथों से अपनी खूबसूरती लुटा रही थी. ऐसी कितनी दुर्गम जगहों पर मानव सभ्यता बसी और पनपी.
अगले दिन सुबह सुबह हमारी दिल्ली के लिए उड़ान थी और मैं थोड़ा जल्दी गेस्ट हाउस पहुंचना चाहता था पर सौगत ने अपनी टिपीकल स्टाईल में कहा, ‘’चाचे इतनी जल्दी किस बात की है तुझे, कल तो तू चला ही जायेगा.’’ रात के डेढ़ बजे तक महफ़िल सजी रही. गर्मी की उस ठंडी रात में हमने भारी मन से उससे विदा ली. यात्रा जरुर खत्म हो रही थी पर जिंदगी का सफर जारी था. हम वापस अपनी दुनिया में कुछ सुहानी यादों को जोड़े हुए लौट रहे थे. सच में कभी कभी जिंदगी कितनी खूबसूरत लगती है.
शुक्रवार पाक्षिक में प्रकाशित अंक 15 जुलाई से 31 जुलाई 

Friday, July 17, 2015

सोशल मीडिया और हमारी अभिव्यक्ति

सोशल मीडिया के आगमन से जनमत आंकलन का एक नया पैमाना मिला .पहले जनमत निर्माण का कार्य जनमाध्यम जैसे रेडियो ,टीवी अखबार आदि किया करते थे पर सोशल मीडिया ने इस परिद्रश्य को हमेशा के लिए बदल दिया है अब ख़बरों के लिए मुख्य धारा का मीडिया सोशल मीडिया पर रहने लग गया है और इसमें बड़ी भूमिका ट्विटर की है  बड़े नेताओं और लोगों की विभिन्न मुद्दों पर राय अब ट्विटर के जरिये खबर बनती है और इसीलिये  सोशल नेटवर्किंग साईट्स  जैसे फेसबुकट्विटरआदि को सामान्य जनता  के विचारों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि सोशल मीडिया सही मायने में एक ऐसा मीडिया हैजो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त है। लेकिन सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में इंटरनेट भी सूचना के मुक्त प्रवाह का विकल्प बनकर नहीं उभर पा रहा । मुद्दों के लिए सोशल मीडिया से जिस तरह की विविधता की उम्मीद की जाती है तथ्य इसके इतर इशारा करते हैं | अमेरिकी शोध पत्रिका पलोस’ में छपे ब्रायन कीगनद्रेव मगरेलिन और डेविड लजेर के शोध पत्र के मुताबिक किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम में ट्विटर जैसी प्रमुख सोशल मीडिया साइट्स में अंतर-वैयक्तिक संवाद का स्थान प्रसिद्ध हस्तियों एवं उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों ने ले लियाजिससे आम जनता के विचार उनके सामने दब के रह गए। नामचीन लोगों के ट्वीट या उनके विचारों को सोशल मीडिया ने ज्यादा तरजीह दीजिससे सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय वही मुद्दे बनेजो पारंपरिक मीडिया में अथवा बड़ी हस्तियों द्वारा उठाए गएन कि वे मुद्देजो वास्तव में जनता के मुद्दे थे।
सोशल मीडिया में चर्चित विषय को रेडियोटीवी और अखबार भी प्रमुखता से आगे बढ़ाते हैं। भारत कोई अपवाद नहीं है।
वर्ष 2009 में जहां सिर्फ एक भारतीय नेता के पास ट्विटर अकाउंट थावहीं अब हर राजनैतिक दल और नेता ट्विटर से संचार कर रहे हैं । इस शोध में 1,93,532 राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों के दो सौ नब्बे मिलियन ट्वीट को अध्ययन का क्षेत्र बनाया गया। ट्वीट्स के माध्यम से आती हुई सूचना इतनी आकर्षक व भ्रामक थी कि जनता उसमें उलझकर रह गई। लोग यह समझ ही नहीं पाए कि जिन मुद्दों को वे री-ट्वीट के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैंवे वास्तव में किसी और के मुद्दे हैं। जनता का ध्यान आपसी संवाद एवं मुद्दों के विश्लेषण से हटकर विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किए गए ट्वीटस पर केंद्रित हो गयाजिससे न केवल स्वतंत्र विचारों पर कुठाराघात हुआ हैबल्कि अफवाहों के फैलने की आशंका भी बढ़ गई है।

इस तथ्य के बावजूद कि सोशल मीडिया ज्यादा लोगों की विविध आवाज को लोगों के सामने ला सकता हैकिसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में यह सोशल चौपाल वास्तविक चौपाल के उलट कुछ खास जनों तक सिमटकर रह जाता है। इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक ध्वनियों की अनदेखी हो जाती हैजिससे सही जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में इसमें परिवर्तन आएगा और किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में विविध ध्वनियां मुखरित होंगी।
प्रभात खबर में 17/07/15 को प्रकाशित 

Wednesday, July 15, 2015

भविष्य का हार्ड डिस्क

१९९० के दशक में आये पहले व्यक्तिगत कंप्यूटरों पर यदि आपने काम किया हो तो आपको अंदाज़ा होगा कि उनकी प्रोसेसिंग क्षमता आज के कंप्यूटरों के मुकाबले नगण्य थी. आज के आधुनिक प्रोग्राम तो उन कंप्यूटरों पर शायद ही चल पाएं. विगत कुछ वर्षों में कंप्यूटरों की कार्य क्षमता में काफी तेज़ी से इजाफा किया है पर उसके साथ ही उनपर काम करने के लिए के बनाये जाने वाले प्रोग्रामों की जटिलता भी बढ़ी है जिससे कि उनके धीमा होने का आभास होता है. आज-कल की तेज़ी से भागती-दौड़ती जिन्दगी में जहाँ हर आदमी के पास वक़्त की कमी है यदि कंप्यूटरों की गति में इजाफा हो जाए तो शायद कुछ वक़्त लोग अपने लिए भी निकाल पाएंगे. यदि आप कुछ इसी तरह की इच्छा रखते हैं तो आपके लिए खुशखबरी है. यदि आपका कंप्यूटर भी आपको कछुए की चाल से चलता हुआ लगता है तो चैन की सांस लीजिये क्योंकि आने वाले समय में आपके कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क की गति आज की तुलना में लगभग १०,००० गुना अधिक हो जाएगी. रोम की ला सपिएँज़ा विश्विद्यालय ने निज़मेगेन स्थित रैडबाउंड विश्वविद्यालय और मिलान की पॉलिटेक्निक के साथ मिलकर क्वांटम मैकेनिक्स पर आधारित कुछ नए प्रयोगों के आधार पर ऐसा संभव होने की सम्भावना है. यह थोडा जटिल विषय है. अभी चुम्बकीय सहायता से डाटा रिकॉर्ड करने की सीमा एवं गति किसी भी धातु या अन्य ऐसी वस्तु के चुम्बकीय गुणों में फेरबदल की सीमा पर आधारित है. आमतौर पर ऐसा वीस डोमेन के द्वारा किया जाता है. ऐसा उस माध्यम के कुछ भागों पर एक विशिष्ट चुम्बकीय दिशा के आक्षेप द्वारा किया जाता है. १९५६ में आई बी एम् द्वारा पहली हार्ड डिस्क बाज़ार में उतारी गयी थी. तब से लेकर आज तक अधिक प्रभावी एवं बेहतर डाटा भण्डारण को लेकर किये गए प्रयासों ने हार्ड डिस्क की डाटा भण्डारण क्षमता को कई गुना बढ़ा दिया है. १९५६ में आये पहले प्रोटोटाइप के मुकाबले आज की हार्ड डिस्कों की डाटा भण्डारण क्षमता लगभग ५ करोड़ गुना अधिक है. हालाँकि अभी जो तकनीकी इस्तेमाल की जा रही है वह अपनी क्षमता के अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुकी है. इस तकनीकी द्वारा एक बिट डाटा को पढने के लिए १ नैनोसेकंड का समय लगता है. वैज्ञानिकों के अनुसार इसे और घटाया नहीं जा सकता है. एक बिट के भण्डारण के लिए काफी बड़ी संख्या में वीस डोमेन्स का इस्तेमाल करना पड़ता है. इस डाटा को बार-बार होने वाले ताप परिवर्तनों से सुरक्षित रखना एक बहुत बड़ी समस्या है और यही आज की तकनीकी की सबसे बड़ी खामी है जो आज की हार्ड-डिस्क की क्षमता को निर्धारित करती है. इसी लिए अब नैनोसेकंड से भी नीचे के समय-माप पर शोध किया जा रहा है. इस शोध के क्षेत्र को “फेमटोमैगनेटिस्म” का नाम दिया गया है. इसमें एक्सचेंज इंटरेक्शन का अध्यन किया जाता है जो कि अत्यंत ही तीव्रगति के समय मापकों पर कार्य करता है. यह एक्सचेंज इंटरेक्शन पदार्थों के चुम्बकीय गुणों का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. सामान्यतः एक अणु का अपना एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसे कि एक चुम्बकीय सुई के रूप में देखा जा सकता है. अणु के इसी गुण का इस्तेमाल कर के वज्ञानिक हार्ड डिस्क की क्षमता को बढ़ाना चाहते हैं. यदि यह प्रयोग सफल हो गया तो आने वाले समय में हमारे कंप्यूटरों की गति कई गुना बढ जाएगी. हालाँकि यह तकनीकी आम आदमी तक कब तक और किन दामों में पहुँच पायेगी यही कह पाना अभी मुश्किल है पर इतना अवश्य है कि इसके आने से कंप्यूटरों की दुनिया बदल जाएगी. एक बात और है कि चूँकि यह तकनीकी अन्य सभी तकनीकी की ही तरह विदेशी मुल्कों में बनायीं जा रही है शायद इसके भारत आने में थोडा और समय लगे. पर यह उम्मीद की जा सकती है कि बाज़ार की शक्तियां इस तकनीकी के इस्तेमाल से बनी हार्ड डिस्कों को जल्दी ही भारत तक ले आएँगी. भारत कंप्यूटरों का एक बहुत बड़ा बाज़ार है. मेक इन इण्डिया के आने के बाद से इस क्षेत्र में तेज़ी से निवेश आने की सम्भावना है. भारतीय वैज्ञानिकों की क्षमता पर कोई शक नहीं कर सकता. जरूरत है तो सिर्फ थोड़े निवेश और सहायता की. यदि यह सहायता उन्हें मिल गयी तो वह दिन दूर नहीं जब ऐसे शोध हमारे देश में भी होंगे और हम उन्हें कम से कम दामों पर आम जनता तक पहुंचा सकेंगे.   

हार्ड डिस्क क्या है?
अब बात करते हैं उस चीज की जिसकी मदद से छोटे से कंप्यूटर में हजारों का डेटा महफूस रहता है। हम बात कर रहे हैं हार्ड डिस्क की। जिस तरह से हम अपनी वार्डरोब में कपड़े लगा के रखते हैंउसी तरह हार्ड डिस्क भी एक ऐसी अलमारी है जिसमें विभिन्न वस्तुओं को संभाल के रखा जा सकता है। इसमें डेटा स्टोर करने के लिए फोर्मैटिंग की जाती है ताकि अलग-अलग खंड बनाये जा सकें। हार्ड डिस्क सिस्टम की फाइल्स को सहेज कर सुरक्षित रखने वाला वह यंत्र हैं जो डिजिटल जानकारी चुम्बकीय रूप से लिख और पढ़ सकती हैं। इसकी खासियत यह है कि बिजली न होने पर भी यह हार्ड डिस्क आंकड़ों को सुरक्षित रखने की क्षमता रखता है। हार्ड ड्राइव/हार्ड डिस्क से आंकड़ों को बेतरतीब (रैंडम -एक्सेस) तरीके से पढ़ा जाता हैं। इसका मतलब है कि आंकड़ों के समूह को ड्राइव में किसी भी जगह लिखकर सुरक्षित किया जा सकता हैंइन्हें सीक्वेंस में सेव करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। पूरे कंप्यूटर डिवाइस में एकमात्र यह ही एक ऐसा हिस्सा है जिसमें सबसे ज्यादा बिजली की खपत होती है। इसका कारण है इसके अंदर लगी मैग्नेटिक डिस्क जो कि तेजी से घूमती है।डेटा भंडारण यन्त्र को उसकी भंडारण क्षमता और प्रदर्शन के आधार पर विश्लेषित किया जाता हैं। डेटा भंडारण यन्त्र की क्षमता बाइट्स में होती हैं१०२४ बाइट को १ किलोबाइट कहा जाता हैं उसी तरह से १०२४ किलोबाइट को १ मेगाबाइट कहा जाता हैं। १०२४ मेगाबाइट को १ गीगाबाइट कहते हैं और १०२४ गीगाबाइट को १ टेराबाइट कहा जाता हैं। डेटा भंडारण यन्त्र का पूरा भंडारण स्थान उपयोगकर्ता के लिए उपलब्ध नहीं होता क्यूंकि कुछ हिस्सा  ऑपरेटिंग सिस्टम को रखने और कुछ और हिस्सा फाइल सिस्टम के लिए और कुछ हिस्सा संभवतः अंदरुनी अतिरेकता  गलती सुधारने और डेटा पुन:प्राप्ति के लिए होता हैं। आंकडों को लिखने वाले नोक(हेड) के पटरी तक पहुंचने के समय और पढ़ते वक़्त वांछित क्षेत्र के नोक के नीचे तक पहुंचने में लगने वाले समय और आंकड़ों के यन्त्र से आवागमन की गति के आधार पर प्रदर्शन क्षमता का निर्धारण किया जाता है|
आज के डेटा भंडारण यन्त्र मेज पे रखे जा सकने वाले डेस्कटॉप कंप्यूटर के लिए ३.५ इंच और गोद में रखे जा सकने वाले कंप्यूटर में २.५ इंच के होते हैं। डेटा भंडारण यन्त्र मुख्य प्रणाली से साटायूएसबी या एस.ए.एस(सीरियल अटैच्डSCSI) जैसे मानक विद्युत् चालक तारो से जुड़े होते है२०१४ तक डेटा भंडारण यन्त्र को अतिरिक्त या सहायक भंडारण के क्षेत्र में ठोस अवस्था वाले संचालक के रूप में टक्कर देने वाली तकनीक थी फ्लैश मेमोरीआने वाले समय में यह माना जा रहा हैं की हार्ड डिस्क अपना अधिपत्य जारी रखेगी लेकिन जंहा गति और बिजली की कम खपत ज़्यादा ज़रूरी हैं वहा ठोस अवस्था वाले उपकरण (सॉलिड स्टेट डिवाइस) को हार्ड डिस्क के जगह इस्तेमाल किया जा रहा हैं।

हार्ड डिस्क का उपयोग
हार्ड ड्राइव डेटा को डिजिटली सहेज के रखता है और यह तब भी सुरक्षित रहता है जबकि आप इसकी पॉवर ऑफ कर देते हैआज यह सब बातें साधारण सी लगती हैपर कुछ समय पूर्व यह सब इतना आसान भी न था। आज कल ऐसे सॉफ्टवेयर्स भी आसानी से डाऊनलोड किये जा सकते हैं जिनसे डिलीट किया हुआ डेटा भी आसानी से रिकवर किया जा सकता है। हार्ड डिस्क अलग अलग साइज की अवेलबल है।
आविष्कार से अब तक का सफ़र
दुनिया की सबसे पहली हार्ड डिस्क आईबीएम कम्पनी ने बनाई थीहालाँकि आज की तुलना में वह पांच गुना ज्यादा बड़ी थीतब भी बहुत कम डेटा सेव हो पाता था। इसमें केवल 5 एमबी डेटा स्टोर किया जा सकता था |वर्ष1980 में आईबीएम ने दोबारा से हार्ड डिस्क पर काम किया और  एक नयी हार्ड डिस्क बनायीं जिसकी स्टोरेज की क्षमता पहले से कई अधिक ज्यादा थी (करीब 2.5 GB से अधिक )पर फिर भी वेट में वो बहुत बड़ी थी उसका वजन करीब 250 किलो और साइज किसी फ्रिज के बराबर का था तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि तबसे लेकर अब तक हार्ड डिस्क में कितने बदलाव आ चुके हैं। यह बदलाव आगे भी होते रहेगे।
हार्ड डिस्क के कुछ नए विकल्प?
आजकल हार्ड डिस्क के स्थान पर एसएसडी  (सॉलिड स्टेट ड्राईव) का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। हार्ड डिस्क के स्थान पर लोग इसे इस्तेमाल कर रहे हैं।हार्ड डिस्क और इसमें अंतर सिर्फ इतना है कि इसमे हार्ड डिस्क की तरह कोई मूविंग पार्ट नहीं होता। इनमे डेटा छोटी छोटी माइक्रोचिप  पर सेव होता है और इसी वजह से इनमे डेटा एक्सेस करने की स्पीड भी अधिक होती है लेकिन फिर भी महंगे होने के कारण आमतौर पर इनका प्रयोग नहीं किया जाता है। महंगे लैपटॉप्स पर इनके इस्तेमाल का प्रचलन बढ़ा है।
कैसे तय होती है इसकी स्पीड
डेटा स्टोरेज की स्पीड तय करने के भी कई मानक है। स्टोर्ज को मापने की सबसे छोटी इकाई होती है बाइट और इन्हें बढ़ते हुए क्रम में इस तरह समझ सकते है
1 KB -1024 Bytes
1 MB-1024 KB
1 GB -1024 MB
1 TB -1024 GB
हार्ड डिस्क के प्रकार-
हार्ड डिस्क दो प्रकार की होती है- एक्सटर्नल और इंटरनल। यह दोनों अपने अपने सब पार्ट्स में बंटे हुए हैं। हार्ड डिस्क मूलत: दो भागों में विभाजित है- पोर्टेबल और डेस्कटॉप। पोर्टेबल वह हार्ड डिस्क होती है जिसे कहीं भी आसानी से ले  जाया सकता है और यह यूजर फ्रेंडली होती है। वहीँ डेस्कटॉप हार्ड डिस्क ड्राइव 60 जीबी से लेकर4 टीबी तक का डेटा सेव कर सकती है। हार्ड डिस्क के प्रकार को विस्तार में जानने के लिए नीचे पढ़ें-
डेस्कटॉप हार्डडिस्क
ये विशिष्ट रूप से 60 जीबी से 4 टीबी तक आंकडों को सेव करने की क्षमता रखता है। इनमें ऑंकणों की स्थानांतरण गति 1जीबी/सेकेंड होती हैं। अगस्त 2014 तक सबसे अधिक क्षमता वाला डेस्कटॉप हार्डडिस्क 8 टीबी तक आंकणों को सुरक्षित रख सकता था।
मोबाईल (लैपटॉप) एचडीडीज
यह मोबाईल में होते हैं तो जाहिर सी बात है आकार में अन्य के मुकाबले छोटे होंगे। अपने डेस्कटॉप और औद्दोगिक समकक्षों की तुलना में ये छोटे और कम क्षमता वाले होते हैं। छोटे प्लेटों(प्लाटर) की वजह से इनकी क्षमता कम होती है।ये औद्दोगिक बाजार मे उपयोग के लिये बनायी जाती हैं।
उद्यम हार्ड डिस्क
विशिष्ट तौर पे कई उपभोक्ताओ द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले संगणक जिनपर की उद्यम सॉफ्टवेयर चलते हैं द्धारा उपयोग किये जाते हैं। जैसे की: लेन-देन डेटाबेसइंटरनेट का आधारभूत ढांचा (ईमेलवेब सर्वरई-व्यापार इत्यादि)नियर लाइन भंडारण। उद्यम एचडीडी सामन्यत: 24 घंटे सातो दिन बिना किसी परेशानी के उच्च प्रदर्शन करते हुए चलते रहते हैं। यहाँ अत्यधिक भंडारण क्षमता पाना लक्ष्य नहीं होता है इसलिए मूल्य की तुलना में क्षमता काफी काम होती है। क्योकि अन्य के मुकाबले यह धीमी गति से घूमते हैं तो इसमें बिजली की खपत कम होती है।
उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक हार्ड डिस्क
ये वो एचडीडी होते है जो वीडियो रिकॉर्डरया फोर वीलरकार आदि में लगे होते हैं। चूंकि ये अधिकतर हिलते रहने वाले उपकरणों में लगे होते हैं इसलिए इन्हे आघात प्रतिरोधी बनाया जाता है।


हार्ड डिस्क के इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण तारीखें 
1973- हार्ड डिस्क लांच करने वाली कपनी आईबीएम द्वारा विनचेस्टर का लांच। विनचेस्टर एक नए किस्म की ऐसी हार्ड डिस्क ड्राइव थी जो बिजली चले जाने के बावजूद भी प्लेटर से पूरी तरह से अलग नहीं होती थी। जैसे ही डिस्क घूमना बंद करता थायह उस ही जगह पर रुक जाता था। फिर से शुरू होने पर डिस्क हेड वही से शुरुआत करता था।

1980यह वह समय था जिसके बाद से हार्ड डिस्क के भाव इतने कम हो गए कि सबसे सस्ते कम्प्यूटर्स में भी इनका इस्तेमाल किये जाने लगा1980 के दसक के शुरुआत में हार्ड डिस्क ड्राइव बहुत मेहेंगे हुआ करते थे।

1983- आईबीएम द्वारा आई०बी०ऍम० पीसी/एक्स टी  लॉन्च किया था जिसमें एक 10 मेगाबाइट का अंदरूनी एचडीडी था और इसके बाद से ही व्यक्तिगत कम्प्यूटर्स में अंदरूनी एचडीडी नियमित तौर से इस्तेमाल होने लगे ।

2011थाईलैंड में आयी  बाढ़ ने कई डेटा भंडारण यन्त्र उत्पादक सयंत्रों को नुकसान पहुंचाया था जिससे 2012-2013 के बीच डेटा भंडारण यन्त्र के कीमतों में इज़ाफ़ा हुआ था।


प्रभात खबर में 15/07/15 को प्रकाशित
 

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