जुले, आपका कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट पर पर स्वागत है | जुले वो शब्द था जो लेह की यात्रा के दौरान बार बार सुनाई दिया जुले का लद्दाखी में मतलब होता है हेलो . लेह की यात्रा महज एक यात्रा नही थी बल्कि एक दोस्त से मुलाक़ात का बहाना था. सौगत, हाँ यही नाम है मेरे दोस्त का जो मुझे एक अरसे से अपने पास लद्दाख बुला रहा था. मैं कुछ निर्णय नहीं ले पा रहा था, आज कल, आज कल ये सब करते करते बहुत सा समय बीत गया और हवाई जहाज के टिकट आसमान छूने लग गये. आखिरकार मैंने फैसला किया कि मुझे लद्दाख जाना ही है |लखनऊ से दिल्ली ट्रेन द्वारा और दिल्ली से हमारी उड़ान थी जो हमें लेह पहुंचाने वाली थी .
हम अभी उड़े ही थे कि मैं नींद के झूले में झूलने लगा. शायद आधा घंटा ही मैं सोया हूँगा कि विमान के लेह के कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट पर लैंडिंग की घोषणा होने लगी . मैंने हडबडा कर खिड़की के बाहर झाँका चारों तरफ बर्फ से लदे पहाड़. एक तरफ हिमालय और दूसरी तरफ काराकोरम, स्याह सफ़ेद का अद्भुत समागम. आधे पहाड़ों पर बर्फ नहीं थी और आधे बर्फ से भरे हुए. प्रकृति का अद्भुत नजारा. ऐसी लग रही था जैसे कागज़ पर किसी ने थ्री डी रूप मे पेन्सिल से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच दी गयी हों. मैंने अपने सामान को समेटना शुरू कर दिया. विमान धीरे –धीरे नीचे आ रहा था, बर्फ वाले पहाड़ पीछे छूट रहे थे और चारों तरफ भूरे काले वीरान पहाड़ों के बीच से हमारा विमान धीरे –धीरे नीचे आ रहा था. मैं किसी छोटे बच्चे की तरह सारे द्रश्य को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता था. अहा लद्दाख आखिर मैं आ ही गया तुमसे मिलने. हिमालय और काराकोरम पर्वत श्रृंखला के मध्य विश्व की छत के रूप में स्थित लद्दाख, भारत को प्रकृति का सबसे खूबसूरत तोहफ़ा है। पाषाण युग की ऐतिहासिकता समेटे लद्दाख के भीतर इतिहास और संस्कृति की कई पर्तें दबी हुई हैं। । भारत के बर्फीले मरुस्थल के विषय में मैंने बहुत पढ़ा-सुना था,
मैं आया था अपने दोस्त से मिलने जिससे मिलने के लिए मैं लम्बे समय से तरस रहा था. सौगत लद्दाख जिला प्रशासन के मुखिया है, जो अपनी मीटिंग के सिलसिले में श्रीनगर में थे और वह तीन जून को वापस लौट रहे थे और आज एक जून की सुबह थी. जैसे ही जहाज ने जमीन छुई मैंने सौगत को संदेसा भेजा लैंडेड और उधर से तुरंत जवाब आया स्वागत है.
हम विमान से बाहर निकले पर यह क्या लेह का कुशोक बकुला रिम्पोछे एयर पोर्ट भारत के अन्य एयरपोर्ट की तरह नहीं था. चारों तरफ बंकर और सेना के जवान, मुझे बताया गया कि यह सेना के द्वारा बनाया गया विमान पत्तन है जिसमें दो पट्टियाँ हैं. एक का इस्तेमाल सेना करती है जबकि दूसरी पट्टी का इस्तेमाल व्यवसायिक विमानों के लिए होता है. मेरा मन सेना के विमान और हेलीकॉप्टर की तरह उड़ान भर रहा था.
लेह लगभग साढ़े ग्यारह हजार फीट की उंचाई पर स्थित है, अब तक मेरी सारी दुनिया में की गयी यात्राओं में सबसे उंचाई पर की गयी यात्रा. विमान पत्तन पर लगातार घोषणा की जा रही थी, ‘’यहाँ ऑक्सीजन की कमी है, मैदानी इलाकों से आये लोगों को यहाँ सांस लेने में, सर दर्द और जी मिचलाने जैसी दिक्कत हो सकती है. चौबीस घंटे सिर्फ आराम करें कहीं घूमने न जाएँ, ढेर सारा पानी पीयें, दौड़ें नहीं और किसी तरह की समस्या में तुरंत डॉक्टर से मिलें अन्यथा समस्या गंभीर हो सकती है.’’ हम अपना सामान लेकर एयरपोर्ट से बाहर निकले वहां दो लोग मेरे नाम की तख्ती लेकर इन्तजार करते मिले, उनमें से एक लेह प्रशासन के अधिकारी थे और दूसरे मियां नजीर जो अगले दस दिन में हमे लद्दाख से परचित कराने वाले थे.दो दिन पूरी तरह आराम करने के बाद
तीन तारीख को हम घूमने के लिए तैयार थे बस सौगत का इन्तजार था उनकी फ्लाईट दस बजे आनी थी.सौगत एयरपोर्ट से सीधे गेस्ट हाउस आये और पूरे एक साल बाद हम लोगों का मिलन हुआ. सौगत के भी कुछ बाल झड गये थे पर फिर भी मुझसे बेहतर स्थिति में थे.उनसे मिल कर हम चल पड़े लेह से करीब पैंतालीस किलोमीटर दूर हीमिंस गोम्पा के लिए | गोम्पा या मोनेस्ट्री दूर पहाड़ों की गोद में बौद्ध लामाओं के अध्ययन अध्यापन के लिए बनाये जाते थे. हम लेह के ग्रामीण इलाकों की ओर बढ़ चले थोड़ी दूर सीधे रास्ते के बाद गाडी ने गोल –गोल घूमना शुरू कर दिया. जैसे कोई परकार से गोले पर रेखाएं खींच रहा हो ऐसे ही रास्ते थे.पहाड़ वीरान थे तलहटी में कहीं –कहीं खेती होती दिख रही थी, पहाड़ों की वीरानी तोड़ने वाली दो ही चीजें थी पहला सेना के द्वारा अपनी बटालियन के बनाये गए उद्घोष वाक्य जो पहाड़ों पर जगह–जगह लिखे गए थे और हमारे साथ –साथ बहती पुरातन सिन्धु नदी की कल कल ध्वनि . सिन्धु नदी का जिक्र अभी तक इतिहास की किताबों में ही सुना था. पहली बार साक्षात अपनी आँखों से देखना किसी आश्चर्य से कम नही था. सिन्धु को देखकर मन थोडा भावुक हो रहा था. सिन्धु ही वह नदी है जिसके आसपास भारत में सभ्यता की शुरुवात हुई,हमारे पूर्वजों की नदी, हमारी नदी. लेकिन अब इस नदी का तीन चौथाई हिस्सा पकिस्तान में बहता है. मैंने सिन्धु को जल हाथ में लिया यह मेरा अपना तरीका था सिन्धु से हाथ मिलाने का उसे शुक्रिया कहने का.
गोम्पा दूर से ही दिखाई पड़ता है भव्य एवं खुबसूरत. कुछ सीढियां चढ़कर हम गोम्पा के भीतर थे, सामने थी बुद्ध की विशाल प्रतिमा. यह लामाओं की एक पुरी दुनिया है जहाँ उनके काम की सारे चीजें मौजूद हैं, इसलिए बाहरी दुनिया से जुड़ाव की उनको कोई जरुरत ही नही. सुबह शाम प्रार्थना और बाकी के वक्त में पठन पाठन.मैं मंदिर के चढ़ावे पर ध्यान देने लगा, माजा की बोतल, सोयाबीन के तेल की बोतलें, डिब्बाबंद दूध, डिब्बाबंद जूस और न जाने क्या क्या, और तो और जीरो कोक के कई केन भी चढ़े थे. मैंने वहां के पुजारी से पूछा हिन्दू मंदिरों में जो चढ़ावा चढ़ता है वो तो पुजारी का हो जाता है |यहाँ के चढ़ावे का क्या होता है उसने पानी टूटी फूटी हिंदी में बताया कि यह सब भक्तों का है जो मंदिर में आते हैं यह उनका है आप जो चाहें इसमें से ले सकते हैं.
शाम होने को आ रही थी और अभी हमें एक महत्वपूर्ण जगह जाना था. जी हाँ रैंचो के स्कूल, वही स्कूल जहाँ थ्री ईडियट फिल्म की शूटिंग हुई थी. जहाँ रैंचो सब कुछ छोड़ छाड़कर रह रहा था. स्कूल में घूमने का अनुभव निराला था. पर्यटकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए अब स्कूल की कुछ जगहों पर ही घुमाया जाता है क्योंकि बच्चों की पढ़ाई में बाधा आती है. शाम के सात बज रहे थे फिर भी रौशनी ठीक ठाक थी |हवा में ठंडक बढ़ रही थी और हम थके मांदे लौट रहे थे.
अगले दिन हमारा कार्यक्रम आल्ची मोनेस्ट्री देखने जाने का था, जो लेह से करीब 65 किलोमीटर दूर है. एक बार फिर हम रास्ते में थे. रास्ते में जांसकर नदी हमारे साथ–साथ बह रही थी. खुबसूरत मीलों लम्बी सड़क जिस पर बाईक सवार यदा कदा दिख जाते. ये वो लोग हैं जो मनाली या श्रीनगर से सड़क के रास्ते लद्दाख की खूबसूरती देखने आते हैं और ये सभी मोटरसाइकिल किराए पर मिलती हैं. चूँकि रास्ते में पेट्रोल पम्प बहुत कम हैं इसलिए सभी की बाईक के पीछे पेट्रोल से भरे केन जरुर दिखते हैं. आमतौर पर किसी पहाडी इलाके में हरे भरे पहाड़ दीखते हैं पर लद्दाख अलग है. यहाँ पहाड़ इतनी ज्यादा उंचाई पर हैं कि ऑक्सीजन की कमी के कारण कुछ नहीं उगता यानि स्याह सफ़ेद पहाड़ और इन पहाड़ों के बीच खड़ा मैं अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा था. सच है लद्दाख में तन मन एकाकार हो जाते हैं. सामने के पहाड़ सूने नंगे थे पर पीछे के पहाड़ों पर खासी बर्फ गिरी हुई थी. सूरज अपनी तेजी से चमक रहा था. ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है जब मैं सुख की घड़ी में तटस्थ हो जाता हूँ राग द्वेष से परे सुख दुःख से मुक्त, बस मैं होता हूँ. ऐसा ही कुछ यहाँ महसूस कर रहा था. लगता था घड़ियाँ रुक गयी हैं और मैंने समय के चक्र को उन पहाड़ों पर रोक लिया था. मेरी तटस्थता को नजीर की आवाज ने तोडा, ‘’सर चला जाए.’’ हाँ, चलना ही तो है, तभी तो यहाँ तक आ पहुंचे हैं, अभी कितनी दूर जाना है पता नहीं. आल्ची मोनेस्ट्री बाकी की सारी मोनेस्ट्री की ही तरह है, बस इसे पुरातत्व विभाग का संरक्षण हासिल है. बौद्ध मन्त्र लिखी हुई झंडियाँ बुद्ध की मूर्तियाँ और दीवारों पर बुद्ध के विभिन्न अवतारों वाले भित्ति चित्र, जो पर्याप्त संरक्षण के अभाव में खराब हो रहे हैं. कुछ भी हो हमें अपनी विरासत सम्हालना नहीं आया. इसके लिए भी हमें यूरोप या अमेरिका से सीखना चाहिए. हमने वहां बने आल्चीको बाँध को भी देखा. हालाकी बाँध की फोटो खीचना मना था लेकिन मुझे बाँध के एक मॉडल की फोटो लेने की इजाजत मिल गयी उस मॉडल के पास एक कौतुहल मेरा इन्तजार कर रहा था. उस मॉडल के पास एक छोटा सा मंदिर बना हुआ था, जहाँ तरह –तरह के भगवान् सजे थे.आश्चर्य किन्तु सत्य कारण में भरोसा रखने वाला विज्ञान भी भगवान भरोसे था.
थिकसे मोनेस्ट्री ,शे पैलेस और लेह का राजमहल तीनो देखने वाली जगहें हैं और हमने यहाँ भरपूर समय बिताया .
अगले दिन सुबह-सुबह विश्वप्रसिद्ध पेंगोंग झील देखने जाना था. पेंगोंग लेह से लगभग 150 किलोमीटर दूर है और रास्ता बहुत ही खतरनाक है. यात्रा शुरू होने के साथ ही साथ धीरे –धीरे उंचाई बढनी शुरू हो गयी और पहाड़ जो अभी तक वीरान दिख रहे थे उन पर बर्फ की चादर दिखनी शुरू हो गयी. जैसे–जैसे हम आगे बढ़ते गये बर्फ की परत मोटी होती गयी, बीच –बीच में हमें जमे हुए तालाब और नाले दिख रहे थे. गर्मी का मौसम था और बर्फ पिघल भी रही थी पर बहुत धीरे –धीरे. पूरा रास्ता ऐसा ही है जब उंचाई बढ़ती तो पहाड़ सफ़ेद हो जाते जैसे ही उंचाई घटती पहाड़ का रंग बदल जाता, इतने रंगीन पहाड़ सिर्फ लद्दाख में ही देखे जा सकते हैं. याक के भी दर्शन बीच –बीच में हो रहे थे जो यहाँ वहां हल्की जमी हुई घास जैसी चीज चर रहे थे. तस्वीरें तो पेंगोंग की पहले भी देखी थीं पर यथार्थ में यह उससे ज्यादा खुबसूरत थी. देर शाम लेह वापस पहुँचने पर बिस्तर पर ऐसे गिरे की सुबह ही आँख खुली |
अब बारी नुब्रा घाटी देखने की थी जहाँ हमें एक रात रुकना भी था . एक बार फिर सामान बाँधा गया और हम नुब्रा घाटी के गाँव हुन्डर के ऑरगेनिक रिसोर्ट चल पड़े |अभी कुछ किलोमीटर ही चले होंगे कि सारा नजारा बदल गया |एक छोटा मोटा पहाडी रेगिस्तान हमारे सामने था |नजीर ने हमें बताया कि यहीं अभी हमें कैमल राईड करनी है यनि ऊंट की सवारी वो भी ऐसे ऊँटों पर जो सारे भारत में यहीं पायें जाते हैं यनी डबल हम्प्ड कैमल दो कूबड़ वाले ऊंट ,यह नुब्रा की खासियत थी |हरियाली बढ़ रही थी पर यह हरियाली उन कांटेदार झाड़ियों की थी जो नुब्रा के इस रेगिस्तान में ही पायी जाती हैं | हमारा अगला पड़ाव डिसकिट से सख्लर होते हुए पनामिक हॉट वाटर स्प्रिंग था जहाँ सोते से गर्म पानी निकलता है. अब हम वापस लेह लौट रहे थे. आधे रास्ते तक श्योक नदी हमारे साथ –साथ चलती रही. मेरे लिए नदी समय काटने का अच्छा जरिया बनी. मैं उसकी धारा देखते और न जाने क्या –क्या सोचते हुए अपना सफर तय करता रहा. प्रक्रति दोनों हाथों से अपनी खूबसूरती लुटा रही थी. ऐसी कितनी दुर्गम जगहों पर मानव सभ्यता बसी और पनपी.
अगले दिन सुबह सुबह हमारी दिल्ली के लिए उड़ान थी और मैं थोड़ा जल्दी गेस्ट हाउस पहुंचना चाहता था पर सौगत ने अपनी टिपीकल स्टाईल में कहा, ‘’चाचे इतनी जल्दी किस बात की है तुझे, कल तो तू चला ही जायेगा.’’ रात के डेढ़ बजे तक महफ़िल सजी रही. गर्मी की उस ठंडी रात में हमने भारी मन से उससे विदा ली. यात्रा जरुर खत्म हो रही थी पर जिंदगी का सफर जारी था. हम वापस अपनी दुनिया में कुछ सुहानी यादों को जोड़े हुए लौट रहे थे. सच में कभी –कभी जिंदगी कितनी खूबसूरत लगती है.
शुक्रवार पाक्षिक में प्रकाशित अंक 15 जुलाई से 31 जुलाई
3 comments:
Kabile zikr manzar nigari.Khas kr k kudrati naqsh-o-nigari
aaj apke lafzo se pura laddakh ka didar kr liya.ohhh hiii
laddakh.......
aapke es artical ko padh kar such mai aisa manzar nazaro ke samne aarha hai jaise ki hm satchaat leh mai ho.
लाइव लेह के दर्शन कर लिये आपके इस लेख को पढ़कर।
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