Tuesday, December 30, 2014

नई सोच का हो ,नया साल

प्रिय दोस्त 2015
एक और साल बीत रहा है और मेरे जाने का वक्त हो गया मन उदास है पर जाना तो पड़ेगा,मैं जाऊँगा नहीं तो तुम आओगे कैसे आना जाना प्रकृति का चक्र है जो आएगा वह जाएगा भी पर दुःख तो होता है,मैं जब आया था तो लगता था कि ये खुशियाँ ये उत्साह हमेशा बना रहेगा पर ऐसा होता नहीं हमारे जीवन को ही देख लो किसी रोज हम बहुत खुश होते हैं तो किसी रोज बहुत दु:खी सुख और दुःख हमारे हाथ में नहीं है ये तो आयेंगे और जायेंगे पर अगर हम चीजों को समान भाव से लेने की आदत डाल लें तो जिन्दगी कितनी हसीं हो जायेगी.
 खैर छोडो इन बातों को तुम यह  सोच रहे होगे कि इस वक्त मैं तुम्हें चिठ्ठीनुमा मेल क्यूँ लिख रहा हूँ . तुम्हारा सवाल जायज़ है मैंने सोचा कि क्यूँ न जाते जाते अपने अनुभव तुम्हारे साथ बांटे जाएँ हालांकि तुम खुद समझदार हो और वैसे भी जिन्दगी जब सिखाती है अच्छा ही सिखाती है तो बहुत सी बातें तुम खुद सीख जाओगे पर चूँकि मैं तुमसे बड़ा हूँ तो कुछ बातें मैं तुम्हें पहले से समझा के जाना चाहता हूँ और तुम्हें मुझसे असहमत होने का पूरा हक़ है.तो पहला सबक यही रहा कि हम हमेशा अपने मन की नहीं चला सकते पर असहमत होने के लिए सहमत होना भी जरुरी है तो तुम्हें एक ऐसा माहौल बनाना हैं जहाँ लोग अपने वैचारिक मतभेद के साथ इस देश में शान्ति से रह सकें.मैंने इस दिशा में कोशिश तो की लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.देखो दोस्त इस संसार में एक ही चीज कांस्टेंट है वो है परिवर्तन तो एक दिन तुमको भी जाना होगा यह बात अगर तुम्हारे जेहन में रहेगी तो तुम किसी भी चेंज को आसानी से स्वीकार कर लोगे क्योंकि तुम्हे पता है तुम यहाँ हमेशा के लिए नहीं हो .तुमने अक्सर जेनरेशन गैप की चर्चा सुनी होगी जानते हो ये गैप क्यूँ होता है जब एक पक्ष परिवर्तन का हिस्सा होता है और दूसरा उस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहा होता है तब समस्याएँ पैदा होती हैं तो मेरी दूसरी  सलाह तुमको है बदलाव का खुले दिल से स्वागत करना :नए विचारों और नए लोगों को आगे बढ़ानादेखना तुम खुद ब खुद आगे बढ़ जाओगे,ऐसे में जब तुम्हारा जाने का वक्त आएगा तो तुम्हें उतना बुरा नहीं लगेगा. तीसरी  बात जब तुम यहाँ आओगे लोग तुम्हारा दिल खोल कर स्वागत करेंगे क्यूंकि जिन्दगी ऐसे ही आगे बढ़ती है जिन्दगी ऐसे ही चलती है.वो पंक्तियाँ तो तुमने भी सुनीं होंगी एक दिन हम भी गुजरा हुआ कल बन जायेंगे पहले हर रोजफिर कभी -कभी फिर कभी नहीं याद आयेंगे तो आज मेरी बारी है गुजरा हुआ कल बनने की कल तुम्हारी भी होगी तो किसी तारीफ़ के लिए काम न करना काम अपनी खुशी के लिए करना क्योंकि ये दुनिया किसी के लिए भी  रुकती नहीं है आलोचनाओं से घबराना नहीं और तारीफ़ से दिमाग मत खराब कर लेना अगर तुम ऐसा कर पाने में सफल रहे तो समझ लेना की तुम्हें जिन्दगी जीना आ गया.हमारा तुम्हारा रिश्ता भी अजीब है हम कभी नहीं मिल पायेंगे पर जब तुम्हारा जिक्र होगा तब मेरा भी जिक्र होगा ये सिलसिला  बनाये रखना,भले ही तुम बहुत से लोगों को व्यक्तिगत तौर पर  न जानो पर तुम लोगों के जीवन में  कुछ ऐसा  परिवर्तन लाना कि लोग बगैर तुम्हें जाने हमेशा याद रखें.
दिन हमेशा एक जैसे नहीं होते,कई बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा ऐसे में घबराने या परेशान होने की जरुरत नहीं है बस धीरज का साथ मत छोड़ना और पॉजीटिव तरीके से आगे बढ़ना देखना धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा.एक और बात ये दुनिया बहुत खुबसूरत है पर इससे दिल लगाने की कोशिश मत करना जो लोग आज तुम्हारे आने के इंतज़ार में पलक बिछाए बैठे हैं यही अगले साल तुम्हारे जाने के दिन गिन रहे होंगें तो तुम अति भावुकता का शिकार कभी मत होना,भावुकता हमेशा सही निर्णय लेने में दिक्कत पैदा करती है. तो नया साल नई बातों नई सोच का कुछ कर गुजरने का साल होना चाहिए. मैं तो अब जा रहा हूँ फिर कभी न आने के लिए लेकिन मेरे जिन्दगी के इस फलसफे को याद रखना जिन्दगी में इतनी जगह जरुर रखना जिसमें गए हुए लोग लौट के फिर आ सकें.
अलविदा
तुम्हारा 2014
आई नेक्स्ट में 30/12/14 को प्रकाशित 

Sunday, December 28, 2014

भारत रत्न पुरुस्कारों पर भी राजनीति की छाप

पुरूस्कार और विवादों का नाता बहुत पुराना है या यूँ कहें की कोई पुरूस्कार आलोचना से परे है ऐसा संभव नहीं है इसलिए यह मान लेना कि भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है इसलिए जिसको भी मिलेगा,सही ही मिलेगा ठीक नहीं होगा|अटल बिहारी बाजपेयी और मदन मोहन मालवीय को हालिया मिले इस पुरूस्कार पर एक बार फिर बहस मुहाबिसों का सिलसिला चल पडा |तर्क वितर्क अगर राजीव गांधी को मिल सकता है तो अटल जी को क्यों नहीं,महामना ने तो इतना बड़ा विश्वविद्यलय स्थापित किया आदि|मेरे विचार में हमें इस भ्रम को दूर करना होगा कि भारत रत्न देश सेवा के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है |यह  पुरूस्कार का देश का नहीं बल्कि सरकार का पुरूस्कार है |सरकार किसी भी व्यक्ति के कार्यों को प्रमाणित करती है और हर सरकार की एक विचार धारा होती है|भले ही सरकार यह कहे कि पदम् और भारत पुरुस्कारों को राजनीति  से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए पर कटु सत्य यह है कि इस देश में अंततः सब कुछ तय राजनीति ही करती है| सत्ता अपने साथ एक संस्कृति,एक विचार लाती है जो यह तय करती है कि सत्ता में कौन से विचार प्रबल होंगें और जो सत्ताधारियों के विचार को आगे बढ़ाते हैं वही सत्ता को प्रिय होते हैं और यह तथ्य सर्वविदित है |तात्पर्य यह है कि यदि देश के प्रति आपके द्वारा किये गए सरकार की विचार धारा से नहीं मिलते तो इसकी पूरी संभावना है कि आपके कार्यों को समाज भले ही प्रमाणित करे लेकिन सरकार का प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा |महान कार्य और महान व्यक्तित्व किसी पुरुस्कारों के मोहताज नहीं होते हैं पर दुर्भाग्य से अब महानता को आंकने का जरिया सरकार द्वारा प्रदत्त ऐसे पुरूस्कार बन रहे हैं |इन पुरुस्कारों की शुरुआत के पीछे दर्शन यह था कि राष्ट्र अपने समाज के महान  लोगों का आंकलन निरपेक्षता से कर सके पर ऐसा कभी भारत में हो न सका, इंदिरा गांधी जिसने देश में आपातकाल जैसा घोर लोकतंत्र विरोधी कदम उठाया उसे भी भारत रत्न मिला और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री को जिनके शासन काल में कारगिल और संसद पर हमले जैसी घटनाएं हुई यानि दूध का धुला कोई नहीं |असल में इसकी जड़ में है इन पुरुस्कारों के लिए नामित होने के लिए कोई स्पष्ट दिशा निर्देश का न होना ऐसे में इन पुरुस्कारों के चयन पर विवाद होना तय हो जाता है | वास्तव में भारत रत्न की अवधारणा के पीछे यह विचार रहा होगा कि ऐसे व्यक्ति जिन्होंने भारत राष्ट्र की अवधारणा के मूल में सन्निहित मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए कालजयी कार्य किया हो जिससे समूचा राष्ट्र लाभान्वित हुआ हो या समाज को प्रेरणा मिली अर्थात ऐसा व्यक्ति जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कार्यों से आदर्शों के शिखर पर हो पर जैसा कि सरकार के अन्य कार्यों के साथ होता है जहाँ राजनीति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही होती है वही इस पुरूस्कार के साथ हुआ यानि जब निर्णय राजनीति को ध्यान में रखकर किये जाने लगे और चयन में पारदर्शिता का अभाव रहा है तो विवादों को बल मिलेगा |मरणोंपरांत पुरूस्कार दिए जाने के कारण किन व्यक्तियों को यह पुरूस्कार दिया जा सकता है इसका कालखंड निर्धारण एक बड़ी चुनौती बन गया है |अगर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पं. मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न दिया जा सकता है तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए सर सैयद अहमद खान को भी दिया जाना चाहिए|एक राष्ट्र के रूप में भारत का विचार हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बौध जैन सभी धर्मालम्बियों से मिलकर बना है तो सरकार को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे यह सन्देश जाए कि वह किसी ख़ास सम्प्रदाय को बढ़ावा दे रही है या किसी ख़ास सम्प्रदाय को महत्व नहीं दे रही है|राजनीति से इतर क्षेत्रों में तथ्य यह भी है कि क्रिकेट खिलाड़ी सचिन जैसा  भारत रत्न विभिन्न कोला जैसे अनेक  ब्रांड का प्रचार कर रहा है और राज्यसभा के सदस्य के रूप में उनका कार्य व्यवहार कोई ख़ास संतोषजनक नहीं है|
यदि इन पुरुस्कारों से विवाद से परे रखना है तो इनके लिए नामित व्यक्तियों के चयन हेतु स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए और निर्णय गोपनीयता के आवरण में नहीं बल्कि पारदर्शिता की पृष्ठ भूमि में होना चाहिए |राजनीति से जुड़े लोगों को इन पुरुस्कारों के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए जिससे इन पुरुस्कारों पर राजनैतिक विचार धाराओं का प्रभाव न पड़े |भारत रत्न पुरुस्कारों के लिए एक स्पष्ट कालखंड का निर्धारण होना चाहिए भारत के संदर्भ में यह काल खंड स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से शुरू होना चाहिये|यदि ऐसा हो पाया तो भारत रत्न से जुड़े विवादों को खत्म तो नहीं पर कम जरुर किया जा सकता है |
हिन्दुस्तान युवा में 28/12/14 को प्रकाशित 

Wednesday, December 24, 2014

स्मार्टफोन ला रहा है मूलभूत बदलाव

पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदला, जितना मोबाइल फोन ने बदल दिया है। संचार ही नहीं, इससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहीं, देश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं है, बल्कि यह मनोरंजन और खबरों, सूचनाओं वगैरह के मामले में परंपरागत संचार माध्यमों को टक्कर दे रहा है। इसके साथ ही जुड़ी हुई यह खबर भी है कि दुनिया में स्मार्टफोन का सबसे तेजी से बढ़ रहा बाजार भारत ही है।
इस बीच टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैं, जो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63 फीसदी बढ़ा है। स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं है, लोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं।
मोबाइल पर वीडियो देखने का बढ़ता चलन टेलीविजन के लिए बड़े खतरे के रूप में सामने आ रहा है। अमेरिका में टेलीविजन देखने के समय में गिरावट दर्ज की जा रही है और भारत भी उसी रास्ते पर चल पड़ा है। इस शोध के मुताबिक, स्मार्टफोन के 40 प्रतिशत प्रयोगकर्ता बिस्तर पर देर रात तक वीडियो देख रहे हैं। 25 प्रतिशत चलते वक्त, 23 प्रतिशत खाना खाते वक्त और 20 प्रतिशत खरीदारी करते वक्त भी वीडियो देखते हैं। इसके साथ ही कॉम स्कोर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट ट्रैफिक का 60 प्रतिशत हिस्सा मोबाइल फोन व  टेबलेट से पैदा हो रहा है और इस मोबाइल ट्रैफिक का करीब 50 प्रतिशत भाग मोबाइल एप से आ रहा है।
मोबाइल का बढ़ता इस्तेमाल भारतीय परिस्थितियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। बिजली की समस्या से जूझते देश में मोबाइल टीवी के मुकाबले कम बिजली खर्च करता है। यह एक निजी माध्यम है, जबकि टीवी और मनोरंजन के अन्य माध्यम इसके मुकाबले कम व्यक्तिगत हैं। दूसरे आप इनका लुत्फ अपनी जरूरत के हिसाब से जब चाहे उठा सकते हैं, यह सुविधा टेलीविजन के परंपरागत रूप में इस तरह से उपलब्ध नहीं है। सस्ते होते स्मार्टफोन, बड़े होते स्क्रीन के आकार, निरंतर बढ़ती इंटरनेट स्पीड और घटती मोबाइल इंटरनेट दरें इस बात की तरफ इशारा कर रही हैं कि आने वाले वक्त में स्मार्टफोन ही मनोरंजन और सूचना का बड़ा साधन बन जाएगा। लेकिन यह तस्वीर तभी तेजी से बदलेगी, जब इंटरनेट उपलब्धता के लिए आधारभूत ढांचों का तेजी से विकास होगा और मोबाइल नेट की दरें कम रखी जाएंगी।
हिन्दुस्तान में 24/12/14 को प्रकाशित 

Monday, December 1, 2014

असमय दम तोड़ता देश का भविष्य

स्वास्थ्य किसी भी देश के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता वाला क्षेत्र होता है, पर आंकड़ों के हिसाब से भारत की तस्वीर इस मायने में बहुत उजली नहीं है। बाल स्वास्थ्य भी इसका कोई अपवाद नहीं है। बच्चे देश का भविष्य हैं पर उन बच्चों का क्या जो भविष्य की ओर बढ़ने की बजाय अतीत का हिस्सा बन जाते हैं! साल 2011 में, दुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुई। यह आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट भी यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ‘लेवल्स एंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मोरटैलिटी-2014’ में कहा गया है कि साल 2013 में भारत में 13.4 लाख से अधिक बच्चों की मौत के मामले दर्ज किए गए। 1990 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर 88 थी, जो 2013 में घटकर 41 हो गई। जाहिर है कि स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन मौजूदा हालात भी संतोषजनक कतई नहीं हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो लोगों की सेहत के लिए काफी इंतजाम किए गए हैं और मानवाधिकारों की स्थिति में भी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी बहुत से इलाकों और समुदायों में बहुत गहरी असमानता बनी हुई है। इनमें से भी करीब एक चौथाई यानी 25 फीसद मौतें सिर्फ भारत में होती हैं। नाइजीरिया में करीब दस फीसद मौतें होती हैं। दुनिया भर में जन्म के पांच साल के भीतर ही करीब एक करोड़ 27 लाख बच्चों की मौतें होती हैं। उनमें से आधी यानी करीब 63 लाख बच्चों की मौत सिर्फ पांच देशों में होती है। भारत में 1990 के बाद से बाल मृत्यु दर के मामलों में आधे से अधिक की गिरावट आई है, लेकिन पिछले साल पांच से कम उम्र के बच्चों की मौत की सबसे अधिक मामले भारत में ही दर्ज किए गए हैं। साफ-सफाई की कमी एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि इसी से गंभीर बीमारियां फैलती हैं। जिनकी चपेट में आने से बच्चों की मौत तक हो जाती है। दक्षिण एशियाई देशों में अब भी करीब 70 करोड़ बच्चों को शौच करने के लिए खुले स्थानों पर जाना पड़ता है। जन्म के पहले महीने में विश्व में कुल जितने बच्चों की मौत होती है, उनमें से करीब दो तिहाई मौतें सिर्फ दस देशों में होती हैं। संयुक्त राष्ट्र का यह अध्ययन यह आकलन करता है कि भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक एक हजार बच्चों में से इकसठ बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संख्या रवांडा (54 बच्चों की मृत्यु), नेपाल (48 बच्चों की मृत्यु) और कंबोडिया (43 बच्चों की मृत्यु) जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के मुकाबले ज्यादा है। सिएरा लियोन में बच्चों के जीवित रहने की संभावनाएं सबसे कम रहती हैं जहां प्रत्येक एक हजार बच्चों में मृत्यु दर एक सौ पचासी है। दुनिया भर में बच्चों की मृत्यु की सबसे बड़ी वजह न्यूमोनिया है जिसके कारण अठारह प्रतिशत मौतें होती हैं। दूसरी वजह डायरिया है जिससे ग्यारह प्रतिशत मौतें होती हैं। भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे है। डायरिया एक ऐसी बीमारी है जिससे थोड़ी-सी जागरूकता से बचा जा सकता है और इससे होने वाली मौतों की संख्या में कमी लाई जा सकती है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुई, उनमें तेरह प्रतिशत की मृत्यु की वजह डायरिया ही था। दुनिया में डायरिया से होने वाली मौतों में अफगानिस्तान के बाद भारत का ही स्थान है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ पानी की कमी और निवास स्थान के आसपास गंदगी का होना है। इसकी एक वजह खुले में मल त्याग भी है। गंदगी, कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिसका शिकार ज्यादातर गरीब घरों के बच्चे होते हैं। वास्तविकता यह भी है कि आर्थिक आंकड़ों और निवेश के नजरिये से भारत तरक्की करता दिखता है, पर इस आर्थिक विकास का असर समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों पर नहीं हो रहा है। इसी का परिणाम पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की बड़ी तादाद में मृत्यु के रूप में सामने आता है, वह भी डायरिया जैसी बीमारी से, जिसका बचाव थोड़ी सावधानी और जागरूकता से किया जा सकता है। बढ़ते शहरीकरण ने शहरों में जनसंख्या के घनत्व को बढ़ाया है। निम्न आयवर्ग के लोग रोजगार की तलाश में उन शहरों का रु ख कर रहे हैं जो पहले से ही जनसंख्या के बोझ से दबे हुए हैं। इसका नतीजा शहरों में निम्न स्तर की जीवन दशाओं के रूप में सामने आता है। दूसरी तरफ, गांवों में जहां जनसंख्या का दबाव कम हैं, वहां स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दयनीय है और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर पर्याप्त जागरूकता का अभाव है। विकास संचार के मामले में अभी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है जिससे लोगों में जागरूकता जल्दी लाई जाए। विशेषकर देश के ग्रामीण इलाकों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रभाव ज्यादा है, पर वह अपने मनोरंजन एवं सूचना में संतुलन बना पाने में असफल रहा है। इसका नतीजा संचार संदेशों में कोरे मनोरंजन की अधिकता के रूप में सामने आता है। संचार के परंपरागत माध्यम भी अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहे हैं। वैसे भी वैश्वीकरण की लहर इन परंपरागत माध्यमों के लिए खतरा बन कर आई है। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है जो कि काफी कम है। सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया। यह स्थिति तब है जबकि भारत सरकार के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के अनुसार वह साल 2015 तक शिशु मृत्यु दर को प्रति 1,000 बच्चों पर 38 की संख्या तक ले आएगी। बढ़ती शिशु मृत्यु दर का एक और कारण कुपोषण भी है। ‘सेव द चिल्ड्रन‘ संस्था का एक अध्ययन बताता है कि भारत बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में बांग्लादेश और बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश ‘डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो’
से भी पिछड़ा हुआ है। हालांकि भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1990 के मुकाबले 46 प्रतिशत कम हुई है, पर इस आंकड़े पर गर्व नहीं किया जा सकता। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब गरीबों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता पैदा की जाए और उनकी जीवन दशाओं को बेहतर किया जाए। इस दिशा में सरकार को सार्थक पहल करनी होगी। पर यूनिसेफ की यह रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा प्राप्त करना आसान नहीं होगा।
राष्ट्रीय सहारा में 01/12/14 को प्रकाशित 

Thursday, November 27, 2014

इंटरनेट चला हिंदी की ओर

भारत सही मायने में कन्वर्जेंस की अवधारणा को साकार होते हुए देख रहा है, जिसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। भारत की विशाल जनसंख्या इस परिवर्तन के मूल में है। इंटरनेट पर अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरुआत हो गई है। गूगल ने हिंदी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शुरू की है, जो इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आएगी। इसमें हिंदी वॉयस सर्च जैसी सुविधा भी शामिल है। गूगल का यह प्रयास ज्यादा से ज्यादा लोगों को इंटरनेट से जोड़ने की दिशा में उठाया कदम है। इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाइंस (आईएलआईए) कहा है। इसका लक्ष्य 2017 तक 30 करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना है, जो इसका इस्तेमाल पहली बार स्मार्टफोन या अन्य किसी मोबाइल फोन से करेंगे।
गूगल के आंकड़ों के मुताबिक, अभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ है, और इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया है, क्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में है, जबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती है, और दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं में, जो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं, इंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्ति, आशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैं, वह उल्लेखनीय जरूर है, मगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता है, वह इंटरनेट में नहीं दिखती। लिहाजा भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती है, जब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो।वैश्विक परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में इंटरनेट 100 अरब डॉलर का योगदान देगा, जो 2011 के 30 अरब डॉलर के योगदान के तीन गुने से भी ज्यादा होगा। अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा। इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी। मगर इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगी, जब इंटरनेट सर्च और सुगम बनेगा। यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगा, तभी गैर अंग्रेजी भाषी लोग इंटरनेट से ज्यादा जुड़ेंगे।
हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के विस्तार का दायरा अभी भले ही इंटरनेट खोज और वॉयस सर्च तक सिमटा है, मगर उम्मीद यही है कि इस प्रयोग का असर जीवन के हर क्षेत्र में पड़ेगा। इसका सबसे बड़ा फायदा ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को मिलेगा, क्योंकि इंटरनेट पर हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में खेती से संबंधित बहुत ज्यादा सामग्री उपलब्ध नहीं है, और उनका अंग्रेजी ज्ञान सीमित है।
हिंदी में इंटरनेट का प्रसार बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्र के किसान सबसे ज्यादा लाभान्वित होंगे।
अमर उजाला में 27/11/14को प्रकाशित 

Friday, November 21, 2014

स्मार्टफोन की तरह स्मार्ट है नेक्स्ट जेनरेशन

अच्छा आपने बदलाव बोले तो चेंज की बहुत बात सुनी होंगी पर क्या इस चेंज को महसूस किया है .अब देखिये न स्मार्ट फोन और इंटरनेट कितना तगड़ा चेंज हमारे जीवन के हर पहलू में ला रहे हैं .कुछ का पता हमें पता पड़ता और कुछ का बिलकुल भी नहीं ,पीसीओ और साईबर कैफे इतिहास हैं हर हाथ में इंटरनेट बोले तो स्मार्टफोन जो भरे हुए हैं दुनिया भर के एप्स से .हर इंसान बस कनेक्टेड रहना चाहता है.कुछ भी मिस नहीं होना चाहिए. वैसे अगर आप बदलाव को निरपेक्ष भाव से देखें मतलब न कुछ खोने का गम और न कुछ पाने की खुशी तो एहसास होता है ये दुनिया ऐसे ही नहीं बदली. जब हम बदलाव में एक पक्ष बन जाते हैं तब बदलाव अच्छा या बुरा हो सकता है पर मैंने पहले ही कहा था “निरपेक्ष भाव” से तो ये बदलाव बहुत कुछ कहता है पर क्या कभी हमने सुनने की कोशिश की है.टेक्नोलॉजी हमारी जिंदगी का कितना अहम हिस्सा होती जा रही है.पहले भारत के एक सामान्य  इंसान का अगर तकनीक से बहुत पाला पड़ता था तो दो चीजें थी पहला कैलकुलेटर और दूसरा टाईप राइटर पर और ये दोनों चीजें इतनी आम भी नहीं थी पर आज ये  “टरहमारे जीवन में कितने चेंज ले आया है.जी हाँ कंप्यूटर और उसके पीछे पीछे मोबाईल फोन वाकई हम बहुत दूर निकाल आयें हैं. एक ऐसी दुनिया जहाँ कम्युनिकेट करना ज्यादा इम्पोर्टेंट है.पर क्या आपने ध्यान दिया कि ये तकनीकी बदलाव हमारे बात चीत करने की एक नयी वर्तनी गढ़ रहे हैं कितने नए शब्द मिल गए हैं हमें थोडा सा डूड बनकर चलते हैं मार्केट घूमने  और देखते हैं इस नयी दुनिया में  लोग कैसे बोल बतिया रहे  हैं  उप्प्स चैट कर रहे  हैं.यार् पिज्जा खाना है नॉट वरी चिलेक्स मुझे गूगल करने दे अभी बताता हूँ कि कौन सा पिज्जा आउटलेट करीब है.नेट स्लो है सेम ओल्ड कनेक्शन प्रोब्लम, तू व्हाट्सएप पर लगा है और पेट में चूहे झम्पिंग झपाक कर रहे हैं.क्या तू अभी एस एम् एस में अटका है,फैंक दे इस फ़ोन को कोई बजट स्मार्ट फोन ले ले.देख इंसान स्मार्ट हो न हो पर गैजेट स्मार्ट होने चाहिए.यू नो दिस इस काल्ड एटीट्यूड.ये तो एक बानगी भर है वर्च्युल वर्ल्ड की बातें रीयल वर्ल्ड में कितनी तेजी से हमसे जुड़ती जा रही हैं.ओए तेरी फीड में ये एड अ फ्रैंड जैसी हरकत कौन कर रहा है और तेरा रिलेशनशिप स्टेटस सिंगल क्यूँ है.तू मेरा कैसा दोस्त है जो प्रोफेशनल लाइकर्स की तरह मेरी हर बात में हाँ हाँ किये जा रहा है तेरा भी कोई पॉइंट ऑफ व्यू है कि नहीं लाईफ का एक्टिव यूजर्स बन बिंदास कमेन्ट कर क्यूंकि जिंदगी न मिलेगी दोबारा.
ये तो दो दोस्तों की बातें हो गयीं पर यहाँ प्रेमी प्रेमिका भी कुछ ऐसी ही रौ में बहे चले जा रहे हैं उधर वो  चैट पर जल रही होती कभी हरी तो कभी पीली और इधर वो, तो बस लाल ही होता हूँ.तुम एक स्माइली भी नहीं भेज सकती,तुम बिजी हो तो मैं कौन सा हैबीटुएटेड चैटर हूँ और सुनो चैटर हो सकता हूँ चीटर नहीं.अब जवाब भी सुनिए वो भी कम दिलचस्प नहीं है काश तुम टाईम लाइन रिवियू होते जब चाहती  अनटैग कर देती  है.मुझे लगता है इस रिश्ते को साइन आउट करने का वक्त आ गया.उधर पेरेंट्स भी अपने लाडलों पर नजर रखे हुए हैं.बाप बेटे की रोड पर होती तकरार का आप भी लुत्फ़ लीजिए.तुम इतनी रात तक चैट की बत्तियों को जलाकर किसको हरी झंडी दिखाते रहते हो.क्या पापा ऐसा कुछ भी नहीं है मैं तो बस फोन पर ही ऑनलाइन रहता हूँ.बेटे बाप हूँ तेरा मैं इन्विजीबल रहकर तेरी हर हरकत पर नजर रखता हूँ पर बोलता कुछ नहीं तू खुद समझदार बन और ये लड़कियों का चक्कर छोड़ पढ़ाई पर ध्यान लगा नहीं तो जिंदगी तुझे ब्लॉक कर देगी तब तू बस लोगों को फ्रैंड रिक्वेस्ट भेजता फिरेगा और लोग तुझे वेटिंग में डालते रहेंगे.अगर आपको ये लेख मजेदार लगा हो तो फेसबुक से लेकर ट्विटर तक जहाँ जहाँ शेयर कर सकते हों कर दीजिए.इसलिए नहीं कि लेख बड़ा अच्छा है बल्कि इसलिए कि हम एक ऐसी पीढ़ी को बिलोंग करते हैं जो सवाल पूछने से डरती नहीं जो हर चीज का जवाब मांगती है और ज्यादा रिस्पोंसिबल है तो देर किस् बात की जरा मोबाईल चेक कीजिये देखिये कोई आप से कुछ कहना चाह रहा है,और हाँ मुस्कुराईयेगा जरुर आखिर एक स्माईली का ही तो सवाल है .
आई नेक्स्ट में 21/11/14 को प्रकाशित लेख 

Tuesday, November 11, 2014

बढ़ते ई-बाजार का सीमित आधार

सजे हुए परंपरागत बाजार अभी इतिहास की चीज नहीं हुए हैं, शायद होंगे भी नहीं, पर ऑनलाइन शॉपिंग ने उनको कड़ी टक्कर देनी शुरू कर दी है। परंपरागत दुकानों की तरह ही ऑनलाइन खुदरा व्यापारियों के पास हर सामान उपलब्ध हैं। किताबों से शुरू हुआ यह सिलसिला फर्नीचर, कपड़ों, बीज, किराने के सामान से लेकर फल, सौंदर्य प्रसाधन तक पहुंच गया है। यह लिस्ट हर दिन बढ़ती जा रही है। इस खरीदारी की दुनिया में घुसना इतना आसान है कि आप अपने बेडरूम से लेकर दफ्तर या गाड़ी से, कहीं से भी यह काम कर सकते हैं। ई-कॉमर्स पोर्टलों की बहार है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोशिएशन ऑफ इंडिया व केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत का ई-कॉमर्स का बाजार 9.5 बिलियन डॉलर का है, जिसके इस साल के अंत तक 12.6 बिलियन डॉलर हो जाने की उम्मीद है और 2020 तक यह देश की जीडीपी में चार प्रतिशत का योगदान देगा।
लोगों की व्यस्त दिनचर्या, शहरों में पार्किंग व ट्रैफिक की समस्या, आमदनी में इजाफा और सस्ते इंटरनेट की सुलभता कुछ ऐसे कारण हैं, जिन्होंने लोगों को डिजिटल कॉमर्स का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया है। फॉरेस्टर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 3.5 करोड़ लोग ऑनलाइन खरीदारी करते हैं, जिनकी संख्या 2018 तक 12.80 करोड़ हो जाने की उम्मीद है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है, पर यहां ई-कॉमर्स का भविष्य मोबाइल के हाथों में है। मार्केट रिसर्च संस्था आईडीसी के मुताबिक, भारत में स्मार्टफोन का बाजार 40 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है। मोबाइल सिर्फ बातें करने, तस्वीरों व संदेशों का माध्यम भर नहीं रह गए हैं। अब स्मार्टफोन में चैटिंग ऐप के अलावा, ई-शॉपिंग के अनेक ऐप लोगों की जरूरत का हिस्सा बन चुके हैं।
खरीदारी के अनेक विकल्पों और कीमतों का तुलनात्मक रूप से मूल्याकंन की सुविधा और आसान मासिक किश्तों में चीजें खरीदने का विकल्प कुल मिलाकर चीजें खरीदने को काफी आसान बना देते हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि ऑनलाइन खरीदारी ने किसी खास सामान की सिर्फ बड़े शहरों में उपलब्धता की स्थिति को समाप्त किया है। आप किसी भी शहर में रहकर कोई भी सामान खरीद सकते हैं। अभी तक बहुत से सामानों के लिए किसी को बड़े शहरों के बाजार पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऑनलाइन खरीदारी के संदर्भ में तस्वीर का दूसरा रुख उतना चमकीला भी नहीं है। एक तो मोबाइल डाटा की कीमत ज्यादा और रफ्तार कम है। फिर बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए, तो छोटे शहरों और कस्बों में इंटरनेट सुविधाजनक नहीं है। अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता की वजह से ऑनलाइन करोबार का दायरा सीमित है। फिर इस क्षेत्र में उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए नियम-कायदे अभी नहीं बने हैं। शिकायत निवारण जैसे इंतजाम भी नहीं हैं।
हिन्दुस्तान में 11/14/14 को प्रकाशित 

Friday, October 31, 2014

क्या बताएं,बहुत टेंशन है यार

टेंशन बहुत है यार आपने भी ये जुमला सुना होगा और टेंशन को महसूस भी किया होगा. अब मुझे देखिये न मैं पिछले पन्द्रह दिनों से टेंशन में हूँ कि इस महीने मैं आप लोगों के लिए क्या लिखूं.फाइनली इस टेंशन ने ही  मुझे इस टेंशन से मुक्ति दी और मुझे टॉपिक मिल गया.जी हाँ इस बार टेंशन की बात.टेंशन यूँ तो स्वास्थ्य के लिए अच्छी बात नहीं है पर अगर जिंदगी में आगे बढ़ना हो तो थोड़ी टेंशन तो लेनी पड़ेगी न.ये टेंशन बोले तो तनाव हम सब की जिन्दगी का हिस्सा है कुछ कम या ज्यादा पर हम सब इसके मारे हैं.हम अपने जीवन से टेंशन को हमेशा के लिए खत्म  तो नहीं कर सकते हैं पर इसको मिनीमाईज़ जरुर कर सकते हैं.कुछ समझे अगर टेंशन को पॉजिटिव वे  में लेंगे तो जिंदगी में आगे बढ़ने के रास्ते यहीं से निकलेंगे|टेंशन का मतलब चिंता,अब जिंदगी है तो चिंताएं भी होंगी यूँ कहें की थोडा है थोड़े की जरुरत है.इस कट थ्रोट कम्पटीशन  वाले टाईम  में अब मस्त होकर जीवन तो गुजार सकते हैं पर  जो बगैर चिंता किये जीवन गुजारते हैं वो जिंदगी में कम ही सफल हो पाते हैंकैसे मैं आपको समझाता हूँ अब अगर पढ़ाई का टेंशन नहीं लेंगे तो परीक्षा वाले दिन और ज्यादा टेंशन होगा कि काश रोज थोड़ी पढ़ाई करते तो परीक्षा वाली रात कयामत की रात न होती यानि रोज पढ़ कर हम एक्साम की टेंशन को खत्म तो नहीं कर सकते पर कम जरुर कर सकते हैं.यानि लाईफ में सक्सेस के लिए कंसिस्टेंट होना जरुरी है,तो ऐसी टेंशन जो हमारी डेली रूटीन लाईफ से जुडी हैं उनको हम थोडा सचेत होकर कम जरुर कर सकते हैं.अब देखिये आजकल कंप्यूटर का ज़माना है पर इसकी हार्ड डिस्क कब क्रैश  हो जाए क्या पता.अब अगर हम अपने सारे डाटा का बैकअप रखेंगे तो हार्ड डिस्क क्रैश भी होगी तो टेंशन कम होगा.
वैसे हमारी प्रगति में टेंशन का बड़ा कंट्रीब्यूशन है इस दुनिया से लेकर अपने करियर तक आप हर जगह इस टेंशन को पायेंगे.आपने गौर किया होगा कि जब काम हमारे हिसाब से नहीं होता तब हमें टेंशन होती है और तब हम चीजें बेहतर करने की कोशिश करते हैं जो लोग टेंशन से हार मानकर हथियार डाल देते हैं वो जीवन में कुछ ख़ास नहीं कर पाते और जो टेंशन से लड़ते हैं वो बड़े लीडर या आविष्कारक बन जाते हैं.जिन्हें दुनिया पहचानती है.न्यूटन ने जब सेब को जमीन पर गिरते देखा तो ये सोचा कि ये जमीन पर क्यूँ गिरा ये ऊपर आसमान में क्यूँ नहीं गया और इस टेंशन में उन्होंने धरती का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत खोज निकाला.
तो हम अगर आज आगे बढ़ रहे हैं तो मेहनत के अलावा तनाव भी इसके लिए जिम्मेदार है जो आपको बगैर काम खत्म हुए चैन से बैठने नहीं देता.क्या समझे ये टेंशन का पॉजिटिव इफेक्ट है पर अगर आप सिर्फ टेंशन ले रहे हैं और काम नहीं कर रहे हैं तो समझ लीजिये आप मुश्किल में  हैं.काम का ज़िक्र करना और ज़िक्र का फ़िक्र करना अपने आप में एक प्रोब्लम है और ऐसे ही लोग अक्सर ये बोलते सुने जाते हैं बड़ी टेंशन है यार,टेंशन सभी को है पर उसका जिक्र सबसे करके क्या फायदा तो टेंशन के टशन का दूसरा सबक है अगर तनाव आपको बहुत ज्यादा है तो उसका जिक्र उन लोगों से कीजिये जो आपके अपने हैं और ऐसे ही लोग आपको टेंशन से निकाल पायेंगे पर ध्यान रहे आपको उन पर भरोसा करना पड़ेगा.
टेंशन एक स्टेट आफ माईंड है पर जिसे आप मैनेज कर सकते हैं,जब आप किसी मसले पर ज्यादा देर तक चिंता के साथ सोचते हैं तो वो टेंशन हो जाता है  पर इसे जरुरत से ज्यादा मत बढ़ने दीजिये और समय रहते इसका मैनेजमेंट कीजिये.टेंशन को मैनेज करने का हर इंसान का अपना एक अलग तरीका होता है.कोई गाने सुनता है तो कोई लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाता है तो आपको जब लगे कि तनाव ज्यादा ज्यादा बढ़ रहा है तो वो आम करें जो आपको पसंद हो फिर देखिये कि कैसे आपका सारा टेंशन छू मंतर हो जाएगा.जैसे खाने में स्वाद बढाने के लिए मसलों का इस्तेमाल होता है वैसे ही जिन्दगी का असली मजा तो तभी है जब उसमें थोडा बहुत मसाला हो.भाई जब चैलेंजेस होंगे तो टेंशन भी होगा सीधी सपाट लाईफ कभी आपने किसी की देखी है भला.कुछ न कुछ तो सबके जीवन में होता है ये आपके ऊपर है क्यूंकि आज का ये दिन कल बन जाएगा कल तो पीछे मुड़ कर क्या देखना तो टेंशन को तार तार कीजिये.
 आई नेक्स्ट में 31/10/14 को प्रकाशित 

Tuesday, September 30, 2014

हमें बदलनी होगी अपनी आदत

पिछले दिनों मुझे कई यात्राएं ट्रेन से करनी पडीं,ट्रेन में समय काटने के लिए मैं भी आपकी तरह कुछ किताबें लेकर बैठा था. मैं वी॰ एस॰ नाएपॉल की सन 1964 में प्रकाशित  ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ पढ़ रहा था जिसके कुछ अंश आपके साथ बांटता हूँ “भारतीय हर जगह मल त्याग करते हैं। ज़्यादातर वे रेल्वे की पटरियों को इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालांकि वे समुद्र-तटों, पहाड़ों, नदी के किनारों और सड़क को भी इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं और कभी  भी आड़ न होने की परवाह नहीं करते हैं.जो नायपाल साहब कई बरस पहले लिख चुके हैं उस वाकये से हम सब आज भी रोज दो चार होते हैं.मैंने जब सुबह ट्रेन से बाहर नजर डाली है लोगों को पटरियों के किनारे फारिग होते देखा है.कैसा लगता है तब शर्म आती है न कि आखिर हम कहाँ  रह रहे हैं और लोग ऐसा करते क्यूँ है.तो ऐसी ही एक यात्रा में इस लेख का खाका खिंच गया,बात भले ही गंदी हो पर करनी तो पड़ेगी तो खुले में मल त्याग करने की समस्या को सिर्फ शौचालयों की कमी से जोड़कर देखा जाए या इसके कुछ और भी कारण हैं.19 नवम्बर 2013 को विश्व टॉइलेट दिवस के अवसर यूनिसेफ़ के हवाले से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का पचास प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आज भी खुले में मल त्याग करता है.अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं की वजह से देश को हर साल  लगभग 2.4 ट्रिलियन रुपयों का नुकसान उठाना पड़ रहा है. 
                                                                       यह भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत से भी अधिक है. ऐसा नहीं है कि केवल अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं जैसे की शौचालयों की कमी की वजह से ही लोग खुले में मल त्याग करते हैं। इसके पीछे कई सामाजिक और धार्मिक कारक भी हैं। रिसर्च इंस्टीटयूट फॉर कॉम्पसिनेट इकोनोमिक्स द्वारा कराये  गए एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग उत्तर भारत के बीस  प्रतिशत से भी अधिक वे लोग जो बारहवीं कक्षा तक पढे हैं और जिनके घरों में शौचालय भी हैं वे भी खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही इसकी आदत डाली गयी है. भारतीय गाँवों में शौचालयों को अशुद्ध समझा जाता है इसलिए भी लोग खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं.इसके पीछे  तर्क यह दिया जाता है कि घर में शौचालय बनवाने से घर का वातावरण अशुद्ध एवं अपवित्र हो जाता है. 
अशुद्ही और अपवित्रता का  यह अवधारणा भी लोगों के खुले में मल त्याग के  लिए जाने का एक प्रमुख कारण है। खुले में मल त्याग करना जैसे भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है. इसे सिर्फ गंदगी-सफाई की शिक्षा के माध्यम से नहीं बदला जा सकता है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.1प्रतिशत ही सैनीटेशन पर खर्च करता है। यह रकम पाकिस्तान और बांग्लादेश के द्वारा इसी मद में खर्ची जाने वाली रकम से भी कम है. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत में लोग सरकारी शौचालयों में भयंकर गंदगी की वजह से भी उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहते हैं। भारत सरकार शौचालय बनवाने पर तो अच्छा-खासा खर्चा कर रही है पर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए चलाये जाने वाले सूचना एवं शिक्षा अभियानों पर यह खर्च न के बराबर ही है। वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान जहां भारत में शौचालयों के  निर्माण पर 2500 करोड़ से भी अधिक रकम खर्च की गयी वहीं लोगों में इस संदर्भ में जागरूकता पैदा करने वाले कार्यक्रमों पर केवल 209 करोड़ ही खर्चे गए. अतः आवश्यकता इस बात की है की शौचालय निर्माण के साथ ही समाज में व्यावहारिक परिवर्तन लाने पर भी ज़ोर दिया जाये.सरकार तो अपना काम करेगी पर इम्पोर्टेंट है हमारे आपके जैसे लोग इस इस्स्यू को सीरीयसली लें न कि चेहरे पर रुमाल रख कर मुंह फेर लें.लोगों की सायकी तो बदलनी पड़ेगी और ये काम एक झटके में नहीं होगा.स्टड और डूड सिर्फ अच्छी पर्सनाल्टी रखकर नहीं बना जाता बल्कि उसके लिए एक अच्छी सोच भी चाहिए होती है. 
आई नेक्स्ट में 30/09/14 को प्रकाशित 

Monday, September 15, 2014

व्हाट्स एप व् एफ बी पर चैटिंग ही नहीं नोट्स भी बांटे

कैम्पस तो कूल हो गए हैं,पर आप कब “कूल” होंगे नहीं समझे अरे भाई कैम्पस लिखने पढ़ने और कुछ नया सीखने की जगह है जब कैम्पस का रूप रंग बदल गया ,पढाने के तौर तरीके बदल गए तो पढ़ने के वही तरीके क्यूँ |अब वो जमाना तो रहा नहीं कि पढ़ाई का एक वक्त हुआ करता था ऐसा हो भी क्यूँ न तब इंटरनेट नहीं था अब तो हर पल दुनिया से जुड़े हुए हैं|हर हाथ में गूगल है तो फिर पढ़ाई करने के लिए माहौल क्या बनाना जब मौका लगे अपने विषय से सम्बन्धित टॉपिक पर ज्यादा से ज्यादा जानकारी लेने की कोशिश कीजिये|इससे दो फायदे होंगे विषय के प्रति आपकी समझ बढ़ेगी जिससे नोट्स बनाने में आसानी होगी और क्लास में शिक्षकों से उन जिज्ञासाओं का आसानी से समाधान हो जाएगा जिसमें आपको संशय हो|देखिये तकनीक कोई बुरी नहीं होती उसे अच्छा या बुरा होना उसके इस्तेमाल पर है|वो चाहे तमाम तरह की सोशल नेटवर्किंग साईट्स हों या व्हाट्स एप जैसे चैटिंग एप अब गर आप समय काटने के लिए इनका इस्तेमाल कर रहे हैं तो अभिभावक,शिक्षक की नारजगी लाजिमी है|
                          अभी वक्त पढ़ाई और करियर बनाने का है एक बार आपका करियर बन गया तो आप कुछ भी करेंगे उस पर कोई रोक टोंक नहीं होगी|अब आप ज्यादा किताबें तो आप को पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता पर मेरी माता जी बचपने में  मुझे अक्सर प्रेरित करने के लिए रामायण की एक चौपाई का सहारा लिया करती थी”समरथ को नहीं दोष गुंसाईं” तो अगर आप करियर में आगे निकल जायेंगे तो कुछ भी करेंगे उसकी मिसाल दी जायेगी| मैं आपको सोशल नेटवर्किंग साईट्स के बारे में बता रहा था|फेसबुक पर आपके विषय से सम्बन्धित बहुत से पेज और ग्रुप हैं उनसे जुड जाइए आपको बहुत फायदा होगा क्यूंकि दुनिया भर में आपके विषय से सम्बन्धित ताजा तरीन जानकारियां वहां शेयर की जा रही हैं|आप विषय पर अपनी पकड़ को वहां दिखा सकते हैं या आप कितना जानते हैं इसका पता भी आपको लग जाएगा|फेसबुक को यारी दोस्ती निभाने की जगह बनाने की बजाय सीखने सिखाने की जगह बनाइये फिर देखिएगा आपको एफ बी पर लगे रहने से कोई नहीं रोकेगा क्यूंकि आप सही काम कर रहे है| व्हाट्स एप पर आपने खूब ग्रुप ज्वाईन कर रखे होंगे पर अब एक ऐसा ग्रुप बनाइये जिसमें नोट्स का आदान प्रदान हो सके क्लास में शिक्षकों से अनुमति लेकर उनके लेक्चर रिकोर्ड कीजिये ये ऑडियो या वीडियो किसी भी रूप में हो सकते है|वैज्ञानिक रूप से यह स्थापित तथ्य है कि हमें रटकर याद करने की बजाय सुनकर जल्दी याद होता है|सोचिये आपका यह छोटा सा प्रयास आने वाले विद्यार्थियों की कितनी मदद करेगा|वीडियो लेक्चर को आप यूट्यूब पर डाल कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अन उस वीडियो लेक्चर की पहुँच में दुनिया का हर विद्यार्थी शामिल है|मुझे उम्मीद है अब जिस मोबाईल और इंटरनेट का अधिक प्रयोग आपको हमेशा सवालों के घेरे में रखता था वो आपके करियर को बेहतर करने में मदद करेगा|अब सोचना छोड़ के लग जाइए अपने करियर को कूल बनाने में |
अमर उजाला माई सिटी में 15/09/14 को प्रकाशित 

Friday, September 12, 2014

कामकाजी महिलाओं की सेहत का सवाल

विकास जब अपने संक्रमण काल में होता तब सामजिक समस्याएं ज्यादा गंभीर होती हैं,कुछ ऐसी परिस्थितियों से भारतीय समाज भी गुजर रहा है |आंकड़े बताते हैं कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं|उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी रोजगार के अवसरों को बढ़ा रहे हैं|महिलायें कार्यक्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को तेजी से तोड़ रही हैं|आमतौर पर ऐसी तस्वीर किसी भी समाज के लिए आदर्श मानी जायेगी जहाँ स्त्रियाँ तरक्की कर रही हों पर भारतीय परिस्थितयों में ये स्थिति महिलाओं के लिए स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानी पैदा कर रही है|वैश्वीकरण की बयार,शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता ने पूरे देश को प्रभावित किया है|धीरे धीरे ही सही अब इस धारणा को बल मिल रहा है कि कामकाजी महिला घर और भविष्य के लिए बेहतर होगी पर हमारा पितृ सत्तामक सामजिक ढांचा उन्हें घर परिवार के साथ साथ  रोजगार सम्हालने की भी अपेक्षा करता है जिसका नतीजा महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं  के रूप में सामने आ रहा है|स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड द्वारा देश के चार महानगरों दिल्लीकोलकाताबंगलुरु  और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच किये गए  इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं| जिसकी  वजह से महिलाओं को थकानकमजोरीमांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा  है|रिपोर्ट के अनुसार,चालीस  से साठ साल के बीच की की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों के होने की आशंका बढ़ी है| महतवपूर्ण तथ्य यह भी है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैंअर्थव्यवस्था में तेजी आने से रोजगार के अवसर बढे जिसके कारण गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा जिसका नतीजा बढ़ते एकल परिवारों के रूप में हमारे सामने आ रहा है|सामजिक रूप से बढ़ते एकल परिवार कोई समस्या की बात नहीं हैं पर संयुक्त परिवारों की तुलना में एकल परिवार में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा है जिससे महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर दोनों को सम्हालने के लिए पुरुषों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है जिससे तनाव बढ़ता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जिससे अन्य बीमरियों के होने की आशंका बढ़ जाती है|अब वो दौर बीत चुका है जब ये माना जाता था कि महिलायें सिर्फ घर का कामकाज देखेंगी अब महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर जीवन की हर चुनौतियों का सामना कर रही हैं,उनके काम का दायरा बढ़ा है पर परिवार से जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए,वह नहीं मिल रहा है| जबकि पुरुषों का कार्यक्षेत्र सिर्फ बाहरी कामकाज तक सीमित है|भारत के सम्बन्ध में यह समस्या इसलिए महत्वपूर्ण है जहाँ अभी तक महिलायें घर की चाहरदीवारी में कैद रही हैं पर अब उनको स्व्वीकार्यता  तो मिल रही है पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है|
अभी भी पुरुषों की सहभागिता  घर के रोज के सामान्य कामों में न के बराबर है| विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 135 देशों में  113 वाँ स्थान है| वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम का सूचकांक दुनिया के देशों की उस क्षमता का आंकलन करता है जिससे यह पता चलता है कि किसी देश ने  पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया|ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारतचीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं|भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद हैजहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं| रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखनेआराम करनेखानेऔर सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं| मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर रिपोर्ट के अनुसार नौकरी और घर दोनों सम्हालने वाली अधिकतर महिलायें डायबिटीज और थायरॉयड के अलावा मानसिक अवसादकमर दर्दमोटापे और दिल की बीमारियों से पीड़ित हैं|अधिकतर भारतीय घरों में ये उम्मीद की जाती है कि कामकाजी महिलायें,अपने काम से लौटकर घर के सामान्य काम भी निपटाएं|ऐसे में महिलाओं के ऊपर काम का दोहरा दबाव पड़ता है जबकि पुरुष घर आकर काम की थकान मिटाते हैं वहीं महिलायें फिर काम में लग जाती हैं बस फर्क इतना होता है कि बाहर के काम का आर्थिक भुगतान होता है जबकि घर के काम काज को परम्पराओं ,मर्यादाओं के तहत उसके जीवन का अंग मान लिया जाता है|उल्लेखनीय है कि इस समस्या के और भी कुछ अल्पज्ञात पहलू हैं| घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं|
बड़े शहरों में जागरूक माता पिता अपनी लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ऐसे में वो लड़कियां शादी से पहले ही कामकाजी हो जाती हैं और घर के दायित्वों में सक्रीय रूप से योगदान नहीं देती पर शादी के बाद स्थिति एकदम से बदल जाती हैं|यहीं पुरुष अगर घर के सामान्य कामों को छोड़कर अपनी पढ़ाई या करियर पर ध्यान दें तो यह आदर्श स्थिति मानी जायेगी क्यूंकि समाज उनसे यही आशा करता है पर महिलाओं के मामले में समाज की सोच दूसरी है ऐसे में भी अगर कोई लडकी पढ़ लिख कर कुछ बन जाती है तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर के कामों में ध्यान देगी और तब समस्याएं शुरू होती हैं|समाज का ढांचा तो बदल रहा है पर मानसिकता नहीं और यही समस्या की जड़ है|मानसिकता में बदलाव समाज के ढांचे में बदलाव की अपेक्षा काफी  धीमा होता है|इसकी कीमत कामकाजी महिलाओं को चुकानी पड़ रही है|कामकाजी महिलाओं को स्वीकार किया जा रहा है पर शर्तों के साथ |इन खतरनाक बीमरियों पर अंकुश लगाने के लिए यह जरुरी है कि परिवार अपनी मानसिकता में बदलाव लायें और पुरुष घर के काम काज को लैंगिक नजरिये से देखना बंद करें|छोटे बच्चे जब घर के सामान्य कामकाज को अपने पिताओं को करते देखेंगे तो उनके अन्दर काम काज के प्रति लैंगिक विभेद नहीं पैदा होगा ऐसे में जरुरी है छोटे बच्चों का समाजीकरण घरेलू काम में लैंगिक बंटवारे के हिसाब से न हो यानि खाना माता जी ही पकायेंगी और पिता जी ही सब्जी लायेंगे| यदि  ऐसा होगा तो आज के बच्चे कल के  एक बेहतर नागरिक नागरिक अभिभावक बनेगे|बीमारियों का इलाज तो दवाओं से हो सकता है पर स्वस्थ मानसिकता का निर्माण जागरूकता और सकारात्मक सोच से ही होगा
राष्ट्रीय सहारा में 12/09/14 को प्रकाशित 

Tuesday, September 9, 2014

कैम्पस में बंधे बंधाए ढर्रे से आजादी

कभी आपने सोचा कि कैम्पस या उच्च शिक्षा में इतनी आजादी क्यूँ रहती है पढ़ाई की फ़िक्र करना स्कूल के दिनों में होता है जब आपकी पढ़ाई की नींव रखी जा रही होती है|कैम्पस में आप एक सांचे में ढल कर आये होते हैं इसलिए आपको फ्री छोड़ दिया जाता है |यह मानकर कि अब आप समझदार हैं और इसीलिये कैम्पस में लेक्चर को आधार बना कर पढ़ाई होती है नोट्स नहीं दिए जाते स्कूल के दिनों की तरह रट्टाफिकेशन यहाँ नहीं होता है|स्वायत्तता और आजादी का नाम है कैम्पस,जहाँ से कुछ सीखकर आप समाज और अपने विषय को एक नयी दिशा देंगे और ये जिम्मेदारी आप पर ज्यादा है |क्यूँ ,क्यूंकि आप युवा हैंदेश में 20 से 35 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी 2021 तक बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है|जो 2001 में करीब 58 प्रतिशत थी। वर्ष 2020 में भारत की 125 अरब की आबादी की औसत आयु 29 साल की होगी जो चीन और अमेरिका के लोगों से भी युवा होगी ,बात है न मजेदार अब जरा सोचिये इतने सारे युवा आंकड़े और भी हैं वर्ष 2011 और 2016 के बीच करीब 6.35 करोड़ नए लोग कामकाजी आबादी में शामिल होंगे जिनमें20 से 35 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या सबसे अधिक होगी।मुझे पता है आंकड़े आपको बोर करते हैं पर भविष्य की बेहतरी का रास्ता आंकड़ों के जंगल से होकर गुजरता है| पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलती जैसे जब तक हम पढेंगे नहीं तब तक आगे बढ़ेंगे नहींवैसे भी आज का युग मोबाईल और इंटरनेट का है हर हाथ में गूगल है आप मेरी लिखी किसी बात को दो मिनट में क्रॉस चेक कर सकते हैं,गूगल बाबा की कृपा से|वैसे बात कैम्पस में आये बदलाव की चल रही थी तो पढ़ने के तौर तरीके भी बदले हैं और टेक्नोलॉजी पर हमारी निर्भरता बढ़ी है|3 का स्क्वायर रूट रटने या कागज कलम से निकालने की जरुरत नहीं,किसी जगह की राजधानी पता करनी हो यानि पढ़ाई की समस्या कोई भी हो समाधान एक है गूगल कर लो डूड कुछ जोड़ना या घटाना हैमोबाईल निकला जेब से और उँगलियाँ उसके टच पर थिरकने लग गयीं|सेकेंडो में जवाब हाजिर अब नोट्स एक्सचेंज करने के लिए व्हाट्स एप पर ग्रुप है तो क्लासेज की सूचना के लिए फेसबुक पेज,सब कुछ इतना आसान हो गया है |आप हर पल हर क्षण कनेक्टेड हैं अब देखिये न सोशल नेटवर्किंग की इस दुनिया में आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की हैपर इस पूरी प्रक्रिया में आपने गौर किया होगा हमारी निर्भरता “गूगल” और तकनीक  पर ज्यादा बढ़ी है और सेल्फ स्टडी पर जोर कम हुआ है|इन सबका असर हमारी क्रिएटिविटी (सर्जनात्मकता) पर पड़ रहा है|जरा सोचिये स्कूल में हम कितना क्रिएटिव हुआ करते थे वो चाहे हार्बेरियम फाईल बनाना हो घर की बेकार की चीजों से कोई मॉडल  कितना तेज़ हमारा दिमाग चलता था पर अब वो दिमाग गूगल का मोहताज है बस समस्या की जड़ यही है |दिमाग का कम इस्तेमाल और तकनीक का ज्यादा बचपने में मेरे पिता जी कहा करते थे बेटे दिमाग का इस्तेमाल जितना ज्यादा करोगे वो उतना ही तेज होगा और जितना कम करोगे वो उतना ही कुंद हो जाएगा उनकी ये सीख कब मेरे लिए जीवन का दर्शन बन गयी पता ही नहीं पड़ा ,किस्सा छोटा सा है फलसफा बड़ा टेक्नोलॉजी की मदद पढ़ाई में आगे बढ़ने में लीजिये पर तकनीक पर पुरी तरह निर्भर मत हो जाइए वैसे भी निर्भरता किसी भी चीज पर हो बुरी ही होती है |मेरा अनुभव यह कहता है जब मुझे तकनीक की जरुरत सबसे ज्यादा होती है उसी समय पर वो धोखा दे देती है तो हमेशा बैक अप रखिये |बैक अप तभी होगा जब आप दिमाग का इस्तेमाल ज्यादा करेंगे| गूगल पर हर विषय से सम्बन्धित अरबों जानकारियां हैं पर अगर हमारे कैम्पस में सिर्फ गूगल का बोलबाला रहेगा तो उस पर नयी जानकारियां कहाँ से आयेंगी |यहीं बात दिमाग के इस्तेमाल की है अपनी नयी जानकारियों को आगे बढाने के लिए गूगल का इस्तेमाल कीजिये न कि दूसरों से प्राप्त जानकरियों को आप आगे बढ़ाते रहें|जहाँ सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा है वहां ज़माने से कदमताल करने के लिए आपको एक्स्ट्रा स्मार्ट होने की जरुरत है तो शुरुवात आज से ही क्यूँ न की जाए|
अमर उजाला माई सिटी में 09/09/14 को प्रकाशित 

उमंगों ,हसरतों और ख्वाबों का संगम है कैम्पस

हर साल की तरह शहर के कैम्पस एक बार फिर गुलजार हैं| जिन जिन को कॉलेज में दाखिला लेना था वो सब प्रवेश ले चुके हैं पढ़ाई शुरू हो गयी है| छात्र छात्राओं के चेहरे देखिये तो न जाने कितने भाव मिलेंगे|किसी का चेहरा उमंगों से लबरेज है तो किसी की आँखें भविष्य के सुनहरे सपने बुन रही हैं|स्कूल अब इतिहास है नया कैम्पस बाहें पसार कर आप का स्वागत कर रहा है|दिल उम्मीदों भरे तराने गा रहा है|याद रखिये ये पल आपकी जिंदगी के सबसे  यादगार पलों में से एक होंगे |भले ही इसका पता अभी आपको न चलें पर जब कल आप इस कैम्पस से विदा होंगे तब आपको एहसास होगा कि आप क्या चीज पीछे छोड़ आये  हैं| पढने लिखने और कुछ सीखने की जगह है कैम्पस,कैम्पस के दिन बोले तो ख्वाब,आजादी, उमंगों और हसरतों को थोड़ा सा अगर आपस में मिला दिया जाए तो जो पहला ख्याल आपके दिल में आ रहा होगा वो अपने कैम्पस या कॉलेज के दिनों का ही आएगा| वही कैम्पस जहाँ कभी मस्ती की पाठशाला सजती है तो कभी किसी लेक्चर से आपका जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है |बात बदलाव की हो रही है तो हमारे कैम्पस भी इस बदलाव से कहाँ बच सके और कैम्पस ही क्यूँ हम सबका जीवन भी तो कितनी तेजी से बदल रहा है|अब सोचिये न कोई ज्यादा पुरानी बात तो है नहीं जब आप कॉपी किताब से भरे बैग को  टाँगे स्कूल की ओर चल पड़ते थे पर कैम्पस में तो बस एक नोटबुक ही काफी है,रोज किताबें ढोने का झंझट खत्म, सी.डब्ल्यू(कक्षाकार्य)और एच.डब्ल्यू(गृहकार्य) अब इतिहास हैं| खड़िया डस्टर की जगह व्हाईट बोर्ड, मार्कर आ गए हैं क्लास रूम स्मार्ट हो गए हैं जहाँ पढ़ाई आडिओ वीडिओ के साथ होती है|
अमर उजाला में 8/09/14 को प्रकाशित 

Tuesday, September 2, 2014

कभी अलविदा न कहना

गाने सुनने का शौक किसे नहीं होता, मुझे भी है प्यारे से मीठे गाने जिसे सुनकर बस आप गाने के लेखक की बरबस तारीफ़ कर उठें. आपने गौर किया होगा कभी कभी गानों की कुछ लाईनें कितनी बड़ी बात कह जातीं है.अब इसी गाने को ले लीजिए ‘चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना कभी अलविदा न कहना’ सच तो यही है जाना और आना प्रकृति का नियम है.अब देखिये न सावन आया और चला भी गया. हम सब थोडा और विश करते ही रह गए लेकिन बादल उतना बरसे नहीं. खैर छोडिये जब रियलिटी अच्छी न हो तो कुछ वर्चुअल रियलिटी की बात कर ली जाए वर्चुअल बोले तो फ़िल्में .हाँ भाई जब कोई चीज चली जाती है तो ज्यादा याद आती है.तो मुझे सावन की याद आती है.यूँ तो सावन सिर्फ साल का एक महीना है लेकिन इसका जिक्र आते ही जो तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है वो है बरसात,हरियाली और झूले और जब इतनी सारी चीजें एक साथ हों तो हो गया न मामला पूरा फ़िल्मी.जी हाँ फिल्मों का सावन से गहरा रिश्ता रहा है या यूँ कहें बगैर बारिश के हमारी हिंदी फिल्में कुछ अधूरी सी लगती हैं ,अगर बारिश है तो गाने भी होंगे तो क्यों न इन गानों के बहाने ही सही जाते हुए सावन को याद किया जाए. सबसे पहले १९४९ में सावन शीर्षक से पहली फिल्म बनी उसकी बाद सावन आया रे सावन भादों , `सावन की घटा´, `आया सावन झूम के´, `सावन को आने दो´ और `प्यासा सावन´ नाम से फिल्में बनीं.
अब सावन का महीना है तो पवन तो शोर करेगा ही .शोर नहीं बाबा सोर जी हाँ ये गाना आज भी हमारे तन मन को मोर सा नचा देता है ,सावन का महीना पवन करे सोर (मिलन).जब पवन शोर करेगा तो बादल बिजली और बरसात आ ही जायेंगे ये सारे सावन राजा के दरबारी हैं. तभी तो सावन को राजा का खिताब दिया गया है ओ सावन राजा कहाँ से आये तुम (दिल तो पागल है.
कहते हैं आग और पानी का रिश्ता होता है चौंकिए मत इस रिश्ते को हमारे गीतकारों ने बड़ी खूबसूरती से गीतों में ढाला है "दिल में आग लगाये सावन का महीना " (अलग -अलग ) या फिर "अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में " (चुपके -चुपके ) एक फिल्म में रिम झिम गिरे सावनसुलग सुलग जाए मन” (दहक) एक खूबसूरत सा गीत और है जो सावन की रूमानियत का जिक्र करता है "तुझे गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो"(सावन को आने दो) अब अगर सावन की बारिश का मज़ा घर में बैठ के लिया तो ये सावन के साथ अन्याय होगा "सावन बरसे तरसे दिल क्यों न निकले घर से दिल "(दहक). वैसे भी सावन बेशकीमती है और इसकी कीमत का अंदाजा करता ये गाना तेरी दो टकिया की नौकरी रे मेरा लाखों का सावन जाए” (रोटी कपडा और मकान ) वैसे भी सावन के महीने में इंसान तो क्या बादल भी दीवाना हो जाता है "दीवाना हुआ बादल सावन की घटा छाई" (कश्मीर की कली ) जब ऐसा सुहाना मौसम हो तो किसी की याद आ ही जायेगी "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ "(जुर्माना ) यहाँ एक रोचक बात है कि सावन और झूलों का गहरा सम्बन्ध है घरों में झूले सावन के महीने ही में लगाये जाते हैं .बात तो सावन की चल रही है लेकिन इसे जिन्दगी से जोड़ दिया जाए तो सावन के दर्शन को समझना आसान हो जाएगा और जिन्दगी जीना भी.  पहला सबक जो आएगा वो जाएगा भी सावन भी चला गया लेकिन फिर आने के लिए तो सफलता और असफलता जिंदगी के हिस्से हैं कोई भी चीज परमानेंट नहीं हैं. 
तो सावन को याद करने के तरीके और मौके कई हो सकते हैं लेकिन बीत गया सावन यही कह गया है कि जिन्दगी अपने हिसाब चलेगी लेकिन अपने मन के आँगन में सूखा मत पड़ने दीजियेगा अपनी खुशियों आशाओं उमंगों के सावन को साल भर बरसने दीजियेगा इतना तो वादा मैं आप से ले ही सकता हूँ इस गाने के साथ कभी अलविदा न कहना.
आई नेक्स्ट में 2/09/14 को प्रकाशित 

Sunday, August 31, 2014

इंटरनेट के बजाय मेहनत पर करें भरोसा

सुबह सुबह जल्दी उठकर पढना चाहिए बचपने में मेरे पिता जी कहा करते थे कि सुबह दिमाग फ्रेश होता है इसलिए जो पढो वो जल्दी याद हो जाता है,जिन्दगी आगे बढ़ चली पर हम इस बात से चिपक के रह गए तो ऐसी ही एक सुबह मेरी कुछ आंकड़ों पर नजर पडी जो मेरे जेहन में रह गयी| जितना मुझे याद रहा उस हिसाब से देश में 20 से 35 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी2021 तक बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है जो 2001 में करीब 58 प्रतिशत थी। वर्ष 2020 में भारत की 125 अरब की आबादी की औसत आयु 29 साल की होगी जो चीन और अमेरिका के लोगों से भी युवा होगी ,बात है न मजेदार अब जरा सोचिये इतने सारे युवा आंकड़े और भी हैं वर्ष 2011 और 2016 के बीच करीब 6.35 करोड़ नए लोग कामकाजी आबादी में शामिल होंगे जिनमें20 से 35 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या सबसे अधिक होगी।युवा आबादी का अधिक होना अच्छी बात है पर ये युवा, मानव संसाधन की द्रष्टिकोण से भी बेहतर होना चाहिए.अब आपके दिमाग की घंटी बजी होगी मानवसंसाधन को बेहतर होने के लिए युवा आबादी का पढालिखा और स्किल्ड होना चाहिए|  पढने लिखने और कुछ सीखने की जगह है कैम्पस,कैम्पस के दिन बोले तो ख्वाब,आजादी, और हसरतों को थोड़ा सा अगर आपस में मिला दिया जाए तो जो पहला ख्याल किसी के दिल में आएगा वो अपने कैम्पस या कॉलेज के दिनों का ही आएगा|  वही कैम्पस जहाँ कभी मस्ती की पाठशाला सजती है तो कभी किसी लेक्चर से आपका जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है |जब मेरे पिता जी सुबह जल्दी उठने की सलाह दिया करते थे तब के कैम्पस और आजकल के कैम्पस में जमीन आसमान का अंतर आ गया है.खड़िया डस्टर की जगह व्हाईट बोर्ड, मार्कर आ गए हैं क्लास रूम स्मार्ट हो गए हैं जहाँ पढ़ाई आडिओ वीडिओ के साथ होती है|पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलती जैसे जब तक हम पढेंगे नहीं तब तक आगे बढ़ेंगे नहीं| जैसे डरना जरुरी है वैसे पढना भी| तो डरने और बढ़ने के इस सिलसिले में पढ़ाई का रूप बदला है अब नोट्स एक्सचेंज करने के लिए व्हाट्स एप पर ग्रुप है तो क्लासेज की सूचना के लिए फेसबुक पेज,सब कुछ इतना आसान हो गया है |आप हर पल हर क्षण कनेक्टेड हैं अब देखिये न सोशल नेटवर्किंग की इस दुनिया में आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की है जिनके पास कहने को बहुत कुछ है पर इस पूरी प्रक्रिया में आपने गौर किया होगा हमारी निर्भरता “गूगल” देव और तकनीक  पर ज्यादा बढ़ी है और सेल्फ स्टडी पर जोर कम हुआ है| 2 का स्क्वायर रूट रटने निकालने की जरुरत नहीं गूगल कर लो यार,कुछ जोड़ना या घटाना है, मोबाईल निकला जेब से और उँगलियाँ उसके टच पर थिरकने लग गयीं|पुराने लोगों की सारी बातों को ओल्ड फैशंड कह कर खारिज कर देना ठीक नहीं | अब सुबह उठकर स्टडी करना वाकई बीते वक्त की बात होती जा रही है हम तो रात में ही पढेंगे और सुबह देर तक सोयेंगे|पढ़ाई किस वक्त करनी है ये आपका निजी फैसला है पर जिन्दगी में अनुशासन बहुत जरुरी है मतलब सुबह पढ़ें या शाम को पर नियमित रूप से पढ़ें |हर चीज पर गूगल की शरण में जाने की बजाय अपने दिमाग का भी इस्तेमाल करें ये तो आपको भी पता है कि अगर दिमाग का इस्तेमाल ज्यादा नहीं किया जाएगा तो वो बेकार हो जाएगा वही  बात दिमाग पर भी लागू होती है| गूगल इंसानी दिमाग ने ही बनाया है तो गूगल हर समस्या का निदान नहीं दे सकता है|गूगल पर जो लोग जानकारियाँ डाल रहे हैं वो हमारे आपके जैसे ही लोग हैं अगर सब गूगल पर निर्भर हो जायेंगे तो गूगल पर  नयी जानकारियां कहाँ से आयेंगी तो पढने में लीडर बनिए,कुछ नयी किताबें खोजिये कुछ नया पढ़िए और फिर उन जानकारियों को लोगों के साथ साझा कीजिये  जिससे आपकी दी हुए जानकरियों से गूगल का खजाना बढे और आपके फालोवर भी|उन्हीं जानकारियों को आगे बढ़ने का क्या फायदा जो पहले से ही गूगल पर हैं| जब हम हैं है नए  तो अंदाज़ भी नया होना चाहिए क्यूंकि अभी भी गूगल और विकीपीडिया पर पढ़ाई से सम्बन्धित विदेशी सामग्री ज्यादा है तो डूड स्मार्ट क्लास में पढ़ भर लेने से कोई स्मार्ट नहीं हो जाता उसके लिए एक्शन में भी स्मार्टनेस होनी चाहिए तो सोच क्या रहे हैं आप भी उसी युवा आबादी  का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो कल रोजगार पायेंगे और रोजगार के लिए स्किल्स का होना जरुरी है तो स्किल्स डेवेलप कीजिये और अपनी स्किल्स को इंटरनेट के साथ साझा कीजिये जिससे गूगल पर कुछ नयी बातें आयें और हमारा ह्युमन रिसोर्स बेहतर हो सके| अब सोच क्या रहे हैं चलिए आज कुछ नयी किताबें खरीदीं जाएँ कुछ नया पढ़ा जाए|  
हिन्दुस्तान युवा में 31/08/14 को प्रकाशित 

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